संसार में छोड़े बहुत नजर आते हैं-स्त्री-पुरुध, जोड़ा-गरमी, सुख-दुख
गरीबी-अमीरी श्रादि । नेष्ठ दो, इथि दो, पॉव दो, पहें दो, ‘सूर्याचन्द्रमसे
दो, फाश-पाताल दो। इन्हें द्विवचन में हैं। प्रकट करने से एक सुन्दरता
दिखती है। परन्तु प्राकृत भधाओं ने द्विवचन' को एक बखेड़ा समझ कर
हटा दिया ! एकवचन और बहुवचन मात्र रखे ! हिन्दी भी उसी परम्परा
में हैं। यहाँ भी दो ही बचन' हैं । हिन्दी में एकवचन बनाने के लिए
कोई खटपट नहीं है। संज्ञा ज्यों की य प्रायः रहती है। उस में कोई
हेर-फेर नहीं होता ।
राम जाता है, लड़का जाता है, लइकी जाती हैं।
गोविन्द राम को देखता है, सीता सुशीला को देखती हैं।
राम ने चाकू से कम अभाई, गोविन्द ने कलम से लिखा
तू ने लवा, राम को दिशा, जलेबर मोहन को
ऊपर प्रायः शब्द हम ने दिया है; इस लिए कि हिन्दी के पु’प्रत्ययान्त
शब्दों के ‘अ’ को ‘ए’ हो जाता है, यदि सामने कोई (ने, को, से, शादि)
विभक्ति हो,-
लड़का लड़के को देखता है।
लड़के ने लड़के को देख :
लड़का पढ़ने में मन नहीं लगता।
मुझे वहाँ जाने में अभी देर है।
कि
ऊपर सर्वत्र ‘ा को इस लिए एकचन में हो गया है;
सामने कोई न कोई विभक्ति है ।
सो, केवल पुंग्रान्त शब्द के लिए ही यह नियम है। अन्यत्र ज्यों
का त्यों रहता है---मदी में, कवि से, गौ पर, बहू को श्रादि । इस ‘अ’ झो
इम टु'विभक्ति' भी कहते हैं। इस लिए कि बहू संस्कृत नाम:' ( अक्षान्त
५० एक वचन ) के विसर्ग का विकास है । परन्तु हिन्दी में इस से ई
खास कारक-बोध नहीं होता, स्त्री-प्रत्य की ही तरह एक प्रत्यय हैं, जिस
के आगे 'ने' आदि विभक्तियाँ लगती हैं ।
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