बुढ्यिा, खिचिया तथा बनिया के अन्त्य ‘श्रा' का लोप श्रौर यु मिला
विकरण ( ‘’ ) में ।।
परन्तु संस्कृत के तद्रूप शब्दों के अन्त्य 'अ' का लोन नहीं होता
माताओं ने, पिता ने, रवा ने, आत्माओं पर,
महात्माओं से, झल्याश्चों को, लता में अादि ।
इसी तरह ‘गौओं को' ' से' आदि रूप होते हैं। कोद तथा
'सरस' आदि शब्दों में श्रीं विफस नहीं लता; क्योंकि यह प्रकृति में ही
- श्री विद्यमान है। यानी एक नन्छन र बहुवचन में समान रूप-रस से
कोदों से' आदि होते हैं। या, यो कहि कि विझर श्राने पर प्रकृति का अन्य ‘’ लुप्त हो जाता है । 'इ' तथा ' को “इ” ही आता है-- कवि ने, विधि से, निधियों में नदियों का, अँगूठियों का, दाइ पर 3' तथा 'ऊ' को उच्’ हो जाता है, परन्तु व्’ का लोप हो जाता है ।
- ' में उ' भी है; इस लिंक ‘बु शुद्ध नहीं, लुत--
प्रभुओं ने, बालुओं को, बहुओं से, साधुओं को इस तरह ' विकरण ने सरलतः ला दी । स्त्रीलिङ्ग-पुल्लिङ्ग भेद के दिना, सब से समान वय ! संस्कृत के व्यञ्जनान्त शब्दों का अन्य ( व्यंजन } ‘छो' में जा मिलता विद्धानें क, बुद्धिमान में, विपदी से
- विपदों से' में ‘विप’ शब्द है । विपदा-सम्पदा अदि इ, दो फिर
विपदाओं से, सम्पदाओं पर इस तरह ‘’ का लोप हुए बिना रूल हौं । 'दि' का 'दिक्कों में रूप न होगः । हिन्दी में दिशा’ चलता है----दिशाओं में । परन्तु अंसद् का
- विपद् की उरई ‘बहुत सी संसद में स्थिति दूसरी होती हैं ऐसे प्रयोग