पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२४७

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( २०२ ) | तो, उस व्यापक नियम का अई एक अपवाद है । संस्कृत की तरह हिन्दी में भी ’ि का बहुवचन में प्रयोग होता है। क्योंकि ‘पञ्च प्राणाः यहाँ भी इमिद्ध ईं; परन्तु हिन्दी ने प्राशा' के रूप में नहीं, ‘प्राण' के रूप में इसे इश किया है उस के प्राण निकल गए उस के प्राणों पर आ बीती इलाई। 'तरः ऋ तर कर लेन। दूसरी चीज है । एक संज्ञा ही पृथक् बना है इई है। | बचन-विन्यास में हिन्दी स्वतन्त्र है; प्राकृतों की जैसी अधकचरी स्थिति में नहीं हैं। इसी लिए- | दम्पती का अगम’ गलत है ! हिन्दी में ‘दम्पति का श्रादमन' शुद्ध है। ‘दम्पति’ संस्कृत का मूल शब्द ( प्रातिपदिक) हैं, ‘दम्पती नहीं । ‘दम्पति’ एक सामासिक शब्द है।

  • बाया' और 'ति' का सभास हो कर ‘दम्पति' शब्द बना है।

चूँकि ‘दम्पति’ में दो हैं; इस लिए इसका प्रयोग वहाँ ( संस्कृत में ) सदा द्विवचन होता है-*दम्पती दम्पतिभ्यामू अादि । हिन्दी ने संस्कृत शब्द थमा के ऊ वृदन के रूप में लिई हैं-राजा त्मिा' (राजन् <झालन् के लय }} यह इस लिए कि व्यंजनान्त शब्द यहाँ प्रातिपदिक रूप से ग्राह्य नहीं है पितृ ऋदि के पिता जैसे ऋयों के ग्रहण में भी वही बात है। ऋकारन्त प्रातिपदिक हिन्दी नहीं लेती । यही स्थिति ‘चन्द्रमा आदि की है, विसर्ग अलग कर दिए। कहीं प्रातिपदिक को ही सस्वर कर लिया हैं। संस्कृत प्रातिपदिक--‘धनुष' का हिन्दी-प्रातिपदिक-‘धनुष' । “धनुः के विसर्ग उड़ा कर धनु' भी चलता है; र धनुष अधिक। इसका मतलब इइ नैऋत? %ि हिन्दी को अपने सिद्धान्त से मतलब-व्यंजनान्त, विसुन्त, करान्ह प्रापिदिक ग्राह्य नहीं। ‘इन’ में स्वतन्त्रता है ही। सो, हिन्दी ने दम्पति' शब्द लिया और “दम्पति अाए ‘दम्पति की अगसन' जैसे इयो । ‘दन्नपति' शब्द का अर्थ वई यहाँ भी है-पति-पत्नी । परन्तु लिंकन यह छोदा नहीं } *कवि श्राए की तरह दम्पति अाए । संस्कृत में द्वौ बी अगच्छतः' प्रयोग होता है; द्विवचन में कवि का कवी हो ज्ञाता है; पर हिन्दी में ‘दो छवि आते हैं। होता है; ‘दो कवी' नहीं। इसी चैरह दम्पति आते हैं। हिन्दी में द्विवचन भी होता, तो अपनी पद्धति रहती; स्त्र की अह । कृवि आते है की कथः श्राते हैं नहीं कर सकते । सो, ईस्तु, कृढ़ द्विवचन रूस ‘दम्पती” यहाँ न चले गा, गलत है ।