पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२५३

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संख्या-वाचक शब्दों का प्रयोग भी विशेषण के रूप में ही होता है यहाँ भी प्रयोग-विधि सब वही है। संख्या-वाचक शब्दों में पुविभक्ति नहीं हैं--एक, दो, तीन, चार अादि । इस लिए इन का प्रयोग सर्वत्र एक-रूर होता है । 'एक' शब्द संस्कृत का तप है, शेष सब तद्भव । “दश’ को भी ‘दह' फर के तद्भव बना लिया गया है। देश मेरे घर हैं' ऐसा न लिखा जा र } सूर्य’ र ‘लूरज' दोनों चलते हैं; परन्तु संख्या-वाचक शब्द १ 'क' को छोड़, अन्य कोई ) संस्कृत का ‘तद्रप' गृहीत नहीं है। हाँ,

  • लक्ष’ र ‘कोटि का प्रयोग ‘लाख-करोड़ के विकल्प में चला है ।
  • सल' भी चलता है। परन्तु सौं’ तक हो तह, शब्द कतई नहीं झुलते !

मेरे ‘पञ्च पुत्र हैं। उस के सप्त' लड़कियाँ हैं या “कौरव शत भाई थे ऐसे प्रयोग हिन्दी में नहीं होते । संख्या-वाचक शब्दों से तद्धित-प्रत्यय कर के कुछ विशेष रूप बनते हैं । तद्धित-प्रकरच पृथक् दिया ही जाएगा । परन्तु यहाँ संक्षेप में संख्यावाचक शब्दों का रूपान्तर बतलाया जा सकता है। दस इक तो संख्या-वाचक शब्द साधारण तुझल हैं और आगे ‘एकादश' आदि ‘सुभस्त' शब्दों के रूया- न्तर हैं ! संख्या-वाचक शब्दों में बहुत रूपान्तर होता है; इस की साक्षी में संस्ड के हैं। एक्कादश, द्वादश, त्रयोदश आदि समस्त शब्द हैं। 'एक' का ‘एका’ और ‘द्धि का द्वा' तथा 'त्रि’ की ‘त्रयः सामने हैं। “घोडा आदि में तः इदुत अधिक परिवर्तन है ! संस्कृत-शब्दों के संख्यावाचक शब्दों में इतना हेर-फेर इस बात की पुष्टि करता है कि किसी समय इस भाषा का व्यापक प्रचार था । साधारण बनती का काम गिनती से जरूर पड़ता है। निरच्छर भट्टाचार्य भी अपने पैसे गिन लेता है। बोलने में अन्तर पड़ जाता है। इसी लिए शब्द कुछ से कुछ बन जाते हैं । एकादश' से ग्यारह' ! ए 'इग्यारह बना, फिर 'इ' का लोप हो गया । *स' का ह' तो होता ही है; परन्तु द' का ३' ३ जना मजे की बात है ! स्पष्ट तब हो जाता है, जब न्य कान में श्रद किं भाषा में द’ को ‘’ और ‘ड’ को ‘२’ होता रहता है। द्वादश’ को ‘यार’ ! 'द' का लोप और दूसरे ‘द' को 'र' हो गया। मु’ का १८’ हो जाना ठीक ही हैं । ‘दा’ को ‘बा' हो गया ! यह बारह' शब्द) ही इस मैं मावा है कि दुल्त १ यु तत्पूर्ववर्ती ‘प्रथम प्राकृत की बढ़ती हुई धारः ) के शब्द से ही हिन्दी के संख्या-वाचक ‘ग्यारह' अदि शब्द निकले हैं। यदि ऐसा न होदा, हिन्दी की धारा में पृथक् ये शब्द गढ़े जाते,