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क्रिया में विशेषण का भ्रम

अनेक जगह शब्दान्तर में लोगों को विशेषण का भ्रम हो जाता है ! काम के भेद से ही नाम का भेद होता है। कोई व्यक्ति जब कपड़े की दुझाद कर लेता है, तो उसे लोग इज' कहते हैं और वही व्यक्ति जब मिठाई की दुकान कर लेता है, तब हलवाई' कहलाता है। यही स्थिति शब्द-जगत् की है । ‘अच्छा लड़को जाता हैं मैं ‘अच्छा' उद्देश्य-विशेषण है। र ‘युद्द लड़का अच्छा है' कहें, तो 'अच्छा' विधेय-विशेषण । 'लड़का अछा गाता है-लड़की अच्छा गाती है' यहाँ 'अच्छा' क्रिया-विशेषण है। | राम आया है' 'सीता आई है’ ‘लड़के आते हैं' इत्यादि प्रयोगों में लोगों को भ्रम हुअा है कि श्राया’ ‘आई’ ‘आते जैसे शब्द विशेषण हैं, ( राम' 'सीता' तथा 'लड़के) कृत-कारकों के । वे हैं को ही क्रिया मानते हैं ऐसी जगह ! येइ विशेष-भ्रम साधारण जनों को नहीं, बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों के विभागाध्यक्षों को हुअा है ! यही नहीं, यह भ्रम संस्कृत के मत्थे भी मढ़ दिया गया है ! प्रयाश-विश्वविद्यालय के संस्कृत-विभाग के अध्यक्ष विद्वद्वर डा० बाबूराम सक्सेना ने संस्कृत के बारे में लिखा है कि

  • श्रगतः ‘सुप्तः' आदि विशेषण ही हैं। बालकः आयतः ‘बालिका सुता'

श्रादि में ‘श्रगतः ‘जुतः’ विशेषण हैं; यह धारणा ! | यह धारण कैसे बनी ? बात यह हुई कि पहले हिन्दी-क्रियाओं को ‘कृदन्त-तिङन्त’ भेद से विभाजित नुहाँ किया गया था। इसी लिए ‘रासः करोति' के अनुसार रास करता है' को कर्तृवाच्य कह कर ‘राम ने काम कि आदि को भी (राम: अकरोत् जैसा समझ कर) 'कर्तृवाच्य' लिख दिया जाता था । लब अन्यभाषा-माषियों ने कहा कि “भई, हिन्दी में बहुत गड़- वह है। 'रम काम करता हैं' और 'सीता काम करती है यह ‘करता- ‘फटी क्या चला हैं ? क्रिया तो उभयत्र एक-रूप रहनी चाहिए !” तब हिन्दी के विद्वान् गड़बड़ाए। कहना शुरू कर दिया कि ‘करता करती तो

  • रास' र 'सीता' के विशेषण हैं; क्रियाएँ नहीं हैं। क्रिया तो 'है' स्पष्ट है,

जो दोनो जगह एक-रूप है। ऐसा कह कर जान बचाई ! मैं १६.३० तक हिन्दी के स्वरूप-विवेचन में लेरा रइ । मैं भी १६.१६ में रामः पुस्तकम् अषठ के ही अनुसार राम ने पुस्तक पढ़ी' समझतः था और चक्कर में था कि राम पुस्तक पढ़ता है' में पढ़ता है; तब राम ने पुस्तक पढ़ी' में “पढ़ी' क् ! १६२५ तक सब धष्ट हो गयी और ने विभर्कि को ( संस्कृत ‘बाल-