पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२९

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यह अंतर प्रांतीय प्रयोगों के कारण थी । इसी प्रकार लिखने में भी अनेक रूपता के दर्शन होते थे । 'ठहरना और खैरना, सूझता और सक्ता, पहचानता और पईचान्सा, मनोरथ और मनोर्थ दोन रूप उस समय के लेखों में मिलते थे । लिखने में यह अंतर उच्चारण के कारण होते थे' जो भिन्न भिन्न प्रांतों में भिन्न-भिन्न प्रकार से हुश्रा करते थे । द्विवेदी जी ने ईसी अनेक- रूपता को दूर कर विशाल हिंदी क्षेत्र में एक समान भाषा के प्रयोग के लिये व्याकरणसम्मत भाषा लिखने की आवश्यकता की ओर लेखकों का ध्यान आकृष्ट किया । कुछ लोगों ने इस प्रयत्न का मजाक भी उड़ाया | स्व० ५० चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने “बुद्ध का काँटा' शीर्षक कहानी का प्रारंभ इस प्रकार किया है : रघुनाथ पपु प्रसाद त्रिवेदी—-या रुग्नात थर्शाद तिर्वेदी---यह क्या ? । क्या करें दुविधा में जान है। एक ओर तो हिंदी कर यह गौरवपूर्ण दावा है कि इसमें जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है और जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है। दूसरी ओर हिंदी के कर्णधारों का अविगत शिष्टाचार है कि जैसे धर्मोपदेशक कहते हैं कि हमारे कहने पर चलो, इमारी करनी पर मत चलो वैसे ही जैसे हिंदी के प्राचार्य लिखें वैसे लिखो, जैसे वे बोलें वैसे मेल लिखो; शिष्टाचार भी कैसा ? हिंदी-साहित्य- संमेलन के सभापति अपने व्याकरण-कषायित कंठ से कहें पसलम दास और इर्किसन लाल श्रऔर उनके पिट्ठू छापें ऐसी तरह कि पढ़ा जाये

  • पुरुषोत्तम दास’ और ‘इरिकृष्ण लालअ' ।।

निश्चित रूप से गुलेरी जी व्याकरणसम्मत भाषा के स्थान पर उच्चारण:- सुम्मत भाषा की ही वकालत करते जान पड़ते हैं। परंतु अधिकांश लोगों के सन में यह बात बैठ गई कि उच्चारणसम्मत भाषा लिखने से हिंदी के विस्तृत भूखंड में भाषा की एकरूपता नष्ट हो जायगी । अस्तु, व्याकरण- सम्मत भाषा लिखने की ओर लोगों की रुचि बढी । परंतु कठिनाई तो यह र्थी कि हिंदी का कोई अर्वमान्य व्याकरण था ही नहीं ! उस समय तक प्रारंभिक पाठशालाओं के छात्रों के उपयोग के लिये अनेक व्याकरण अवश्य बने थे अथवा बन रहे थे, परंतु विस्तृत हिंदी क्षेत्र के लेखकों और पाठकों के सामान्य उपयोग की दृष्टि से कोई सर्वमान्य व्याकरणए उस समय तक नहीं बना था । द्विवेदी जी ने अपने भाषा और व्याकरण लेख में यही बात