पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२९४

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चतुर्थ अध्याय

अव्यय और उपसरर्ग

विविध अर्थों में विभिन्न शब्दों का संकेत करके, ‘उद्देश्य' 'विधेय' नाम के दो भान में, उन्हें व्यवस्थित किया गया और उद्देश्य भाग के शब्दों को 'नाना' तथा 'सना सुंगा दे कर उनके विरण बनाए । विधेय' अ ( बह-शरए } इस मुलक के उचर में ८ र ! इस तरह न ले में शब्दसमूह ८ देने पर में कुछ ३६ छ है । इन का अन्तर्भाव किसी भी निर्दिष्ट क्रे में सम्भव नहीं, यद्यपि विदिई अर्थों में थे झाते हैं और भाषा में प्रमुख स्थान रचते हैं। ऐसे शब्द हैं--- ‘श्रा३' ! 'ह! अहा ! 'ही' हे ‘भी आदि । न ये ना { } हैं, न सर्वनाम हैं, न विशेष हैं और न क्रिया-प्रद ही हैं । तो फिर इन्हें कहाँ रखा बाए ? क्या नाम इस श्रेणी छः रखा जा ? देखा गया कि इन शब्दों : चाहे जैसा प्रयोग किया ज,ए, इन में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता । सदा ज्यों के स्र्यों रहते हैं। इन के इस विशेषता को ले कर इन का नाम ‘अव्यय' रख दिया गया—न व्येति, विविधं विकारं च पृच्छ्ती- त्यव्ययम्' तरह-तरह के विकार ( ९र-परिवर्तन ) जा नाम-सर्वनाम आदि में । यो-भेद है ; इते हैं, वे इन आई, आह आदि) ब्दी में कभी न देखे जाते, इस लिए इन की दम ‘अन्यथ' रख लिया गया । संसार की सभी भाषाओं में 'अव्यय हैं । एकदम सस्त बन्द जानिय ' हा मैं ? ‘अव्यय । ( ने ज्ञाने धे, वन-जा” शब्द हो लोग जन-जाति वने लगे हैं ? सुशान्तर है : मतलब यह कि भाषा में ‘अव्यय का अभुल न है । इत्र नं ४ झि को होती है, तो बर- बस मुख से अह' या १६ औंवा कोई शुब्द निकल जातः है । यह शब्द उस पीड़ा की व्यंजना करता है। यह शुन्द साहित्यिक माछा में भी पीड़ा- व्यंजना के लिए व्यवहून ने रता है । तत्र व्यार में अव्यय' नाम प्राप्त करता है। आगे चल कर उसे शब्द की ** ई? ति बन जाती है, जिन के रूप में ओई पवन नई होइन, , , नी झदि ।