पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/१००

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चतुर्थ व्याख्यान फिर भी कवि यहाँ रुकता है। पृथ्वीराज हर रोनी के पास विदा लेने जाते हैं और जिस ऋतु मे जाते हैं उसका मनोरम वर्णन सुनके रुक जाते है। वसन्त ऋतु मे वे इछिनी के पास जाते हैं पर अनुमति नहीं मिलती। इंछिनी उन्हें समझाती है कि इस ऋतु मे कोई भला आदमी बाहर जाता है ? जब श्राम बौरा गये हों, कदंब फूल चुके हों, रात की दीर्घता मे कोई कभी न पाई हो, भेवरे भावमत्त होकर झूम रहे हों, मकरन्द की झड़ी लगी हुई हो, मन्द-मन्द पवन विरहाग्नि को सुलगाने मे लगी हो, कोकिल कूक रहे हों और किसलयरूपी राक्षस प्रीति की आग लगा रहे हो, तब कैसे कोई युवती रमणी अपने प्रिय को बाहर जाने की अनुमति दे सकती है ? इंछिनी ने पैरों पड़के विनय किया कि हे प्राणनाथ, इस ऋतु में बाहर मत जानी-- मवरी अंब फुल्लिग कदंब स्यनी दिघ दीसं । भेवर भाव मुल्लै भ्रमन्त मकरन्द बरीसं ॥ वहत बात उज्जलति मौरअति विरह अगिनि किय। कुहकुहन्त कलकंठ पत्रराषस अति अग्गिय ।। पय लग्गि प्रानपति विनवौ नाहनेह मुझ चितधरहु। दिन-दिन अवद्धिजुब्बन घटय कन्त वसंत नगम करहु॥ पृथ्वीराज ऐसे दो-चार पद्य सुनने के बाद वसन्त भर वहीं रुक गए । फिर ग्रीष्म श्राया- प्रचण्ड ग्रीष्म । उस समय वे पुण्डीरनी रानी से विदा लेने गए। वही कैसे छोड़ती ? मला, यह भी कोई बाहर जाने का समय है-उत्तम वायु बह रही हो, तरुणी का क्षीण शरीर ताप से दग्ध हो रहा हो, चारों दिशाएँ धधक उठी हों, क्षण भर के लिए भी कहीं ठड का अनुभव न होता हो, ज्वलन्त पानी पीने को मिलता हो, खून सूख रहा हो, राह चलना कठिन हो रहा हो, दिन-रात गर्मी की ज्वाला से काया क्लेशापन्न हो उठी हो-इस प्रकार के समय में तो कन्त को कभी बाहर नहीं जाना चाहिए, सम्पत्ति हो या विपत्ति !!- पीन तरुनि तन तपै बह नित बावरयन दिन । दिसि चारयों परजलै नहीं कहौ सीत अरध पिन । जल जलंत पीवंत रुहिर निसिवासर घट्टै । कठिन पंथ काया कलेस दिन रयनि संघहै। त्रिय लहै तत्त अप्पर कहै गुनियन अब्ब न मंडियै । सुनि कंत सुमतिसंपति विपिति ग्रीषम ग्रेह न छंडियै॥ सो, पृथ्वीराज गहाँ भी एक ऋतु तक रुके रहे। वर्षाकाल में इन्द्रारती से विदा लेने गए। वही कैसे छोड़ती भला ? विशेष करके जब बादल घहरा रहे हों, एक-एक क्षण पहाड बने हुए हो, सजल सरोवरों को देखकर सौभाग्यवतियों के हृदय फटे जा रहे हों, बादल जल से सींच-सींचकर प्रेमलता को पलुहा रहे हों, कोकिलों के स्वर के साथ प्रेम के देवता अपना बाण-संधान कर रहे हो, दादुर, मोर, दामिनी, चातक, सब-के-सव दुश्मनी पर उतारू हो पाए हों तो प्रिय को कैसे जाने दिया जा सकता है -