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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का आविकाल घन गरजै घरहरै पलक निस रैनि निघहै। सजल सरोवर पिप्षि हियौ ततछन घन फट्ट। जल बद्दल बरपंत पेम पल्लहौ निरन्तर । कोकिल सुर उच्चरै अंग पहरंत पश्वसर ॥ दादुरह मोर दामिनि दसय अरि चवस्थ चातक रटय । पावस प्रवेस बालम न चलि विरह अगिनि तन तप घटय ॥ घुमडि घोर धन गरिजि करत आडम्बर अम्बर। पूरत जलघर धसत धार पथ पथिक दिगम्बर । झझकित द्विंग सिसु निग समान दमकत दामिनि द्रसि । विहरत चात्रग चुवत पीय दुष्पन्त समं निसि । ग्रीषम्म विरह द्र मलतातन परिरम्भन क्रत सेन हरि । सज्जन्त काम निसि पञ्चसर पावस पिय न प्रवास करि ॥ इस ऋतु का वर्णन कवि ने प्राण ढालकर किया है.-- द्रिग भरित धूमिल जुरति भूमिल कुमुद निम्भल सोभिलं । द्रम अंग बल्लिय सीस हल्लिय कुरलि कण्ठह कोकिलं । कुसुमंज कुञ्ज सरीर सुम्भर सलित दुम्भर सदयं । नद रोर दद्दर मोर नद्द र बनसि बद्दरि बयं । मम ममकि विजल काम किज्जल श्रवनि सज्जल कयं । पप्पीह चीहति जीह जंजरि मोर मंजरि मद्दयं । जगमगति भिंगन निसि सुरंगन भय अभय निसि हृदयं । मिति हंस हॉस सुवास सन्दरि उरसि आनन मिद्धयं ।। सो, चन्दवरदाई का यह वर्षा-वर्णन भाषा और भाव-ध्वनि और बिंब-दोनों ही दृष्टियों से बहुत उत्तम हुना है। अनुकूल ध्वनियों का ऐसा समंजस विधान है कि देखते ही बनता है। चन्द इस कला में निपुण हैं। बल्कि यह कहना चाहिए कि वे इस कला में जरूरत से ज्यादा महारत हासिल कर चुके हैं। युद्ध के प्रसगों मे तो वे लाठी लेकर शब्दों को पीट-पीटकर इस योग्य बनाते हैं कि वे युद्ध की ध्वनि उत्पन्न कर सके। यदि किसी का हाथ-पैर टूट जाय तो उन्हें कोई परवाह नहीं। इस ऋतु-वर्णन के प्रसंग मे इतनी दूर तक शासन से काम नहीं लेते। थोड़ा तो लेते ही हैं। शरद्, हेमन्त और शिशिर भी इसी प्रकार एक-एक रानी के पास बीत जाते हैं, पृथ्वीराज का जाना नहीं होता। अन्त मे वे चन्द की शरण जाते हैं- षट् रित बारह मास गय फिर आयौ रु वसन्त । सो रित चंद बताउ मुँहि, तिया न मावे कंत ॥