पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/१०२

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चतुर्थ व्याख्यान चन्द ने 'ऋतु' शब्द को पकड लिया। उसी पर श्लेष करते हुए उत्तर दिया- रोस भरै उर कामिनी. होह मलिन सिर अंग। उहि रिति त्रिया नभावई, सुनि चुहान चतुरंग । और प्रसंग समाप्त होता है। यह ऋतुवर्णन मिलनसन्य श्रानन्द मे उद्दीपना का संचार करता है। शशिवता-विवाह के प्रसंग में विरहजन्य दुःखबोध को गाढ बनाने के लिये ऋतुवर्णन का सहारा लिया गया है। इस काल के कवि अद्दहमाण (अब्दुल रहमान ?) के संदेशरासक और ढोला मारू के दोहों मे विरहदशा की अनभूतियो के वर्णन का प्रयत्न है। कुछ थोडा परवर्ती काल के कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने विरह-वेदना की अनुभूतियों को दिखाने के उद्देश्य से ऋतुवर्णन लिखा है। संदेशरासक में कवि ने जिस वाह्य प्रकृति के व्यापारों का वर्णन किया है, वह रासो के समान ही कवि-प्रथा के अनुसार है। उन दिनो ऋतुवर्णन के प्रसंग मे वर्ण्य वस्तुओं की सूची बन गई थी। बारहवीं शताब्दी की पुस्तक कविकल्पलता मे और चौदहवीं शताब्दी की पुस्तक वर्णरत्नाकर में ये नुस्खे पाए जा सकते हैं। इन वाह्य वस्तु और व्यापारों के आगे न तो रासो का कवि गया है, न श्रद्दहमान ही। फिर भी बायसी की भाँति अद्दहमाण के सादृश्यमूलक अलंकार और वाद्यवस्तु-निरूपक वर्णन वाहवस्तु की ओर पाठक का ध्यान न ले जाकर विरह-कातर मनुष्य के (चाहे वह स्त्री हो या पुरुष) मर्मस्थल की पीड़ा को अधिक व्यक्त करता है। रासो मे यह बात इस मात्रा में नहीं मिलती। संदेशरासक का कवि वाह्य वस्तुओं की सम्पूर्ण चित्रयोजना इस कौशल से करता है कि उससे विरहिणी के व्यया कातर सहानुभूति-सम्पन्न कोमल हृदय की मर्मवेदना ही मुखर हो उठती है। वर्णन चाहे जिस दृश्य का हो, व्यंजना हृदय की कोमलता और ममवेदना की ही होती है। तुलना के लिये एक वर्षावर्णन का प्रसंग ही लिया जाय । विरह-कालरा प्रिया किसी पथिक से अपने प्रिय के सदेशा भेजती है । वह मेत्रों का समय है। दसों दिशाओं में बादल छाए हुए है, रह-रहके घहरा उठते हैं, श्राकाश में विद्युल्लता चमक रही है, कड़क रही है, दादुरों की ध्वनि चारो ओर व्यात हो रही है- धारासार वा एक क्षण के लिये भी नहीं रुकती। इस कविप्रथा- सिद्ध वर्षा का वर्णन करते-करते विरहिणी कातरभाव से कह उठती है-हाय पथिक, पहाड की चोटियों पर से उसने (प्रिय ने) यह सब कैसे सहा होगा- भंपवि तम बद्दलिण दसह दिसी छायर अंबरु । उन्नवीयउ घुरहुरई घोर घणु कीसणाडबरु । णहह मग्गिणहवल्लीयतरल तडयडिवि तडकइ । दुदुर रउणु रउद्दु सद्दु कुवी सहवि ण सक्कइ । निवड निरन्तर नीरहर दुद्धर धर धारोह भरु । कीम सहर पहिय सिहरहियइदुसहउकोइल रसह सरु । -(संदेशरासक)