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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का श्रादिकाल इससे विरह-कातरा प्रिया का अत्यन्त कोमल और प्रीति-परायण हृदय हीध्वनित हुया है। वाथ प्रकृति तो उसके सहानुभूतिमय प्रेम-परायण हृदय को दिखा देने का साधन मर है। रासो के वर्णनों में यह बात नहीं श्राने पाई है, फिर भी वे वाह्य प्रकृति के सरस चित्र उपस्थित करते हैं । अनियों और रंगों के सामंजस्य से राखो के चित्र खिल उठे हैं। अल्लु । __ सो, इस प्रसंग में कवि ने विरह के समय ऋतुवर्सन की प्रथा को न अपनाकर संयोग- कालीन उद्दीपक ऋतुबर्णन की पुरानी प्रथा को ही अपनाया है। बद्यपि बर्य विषयों की योजना में कोई नवीनता नहीं है, वे तत्काल प्रचलित लढ़ियों के अनुसार ही हैं तथापि उनमें अपना सौन्दर्य है। वे पाठकों को श्राइष्ट करते हैं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार राजपूत-चित्र दिवद्ध होने पर भी दर्शक को विह्वल बनाते हैं। शब्दचयन की अद्भुत शक्ति ने चन्द के काव्य को अपूर्व शोभा प्रदान की है। इन मधुर-मोहन छंदों को पढ़ने के बाद रासो के अन्य प्रसंगों की ऊबड़-खाबड़ वेठी-ठिकाने की भाषा के विषय में सन्देह होना उचित ही है। कहाँ यह सुन्दर शब्दयोजना, समीर मनिमान्द्रयू और कहाँ द्वित्व और अनुस्वारों के सहारे वेमतलब खड़ी की गई बेतरतीब शब्दों की पल्टन | एक बार दिखती है कथाकार की अद्भुत योजनाशति, कथा का घुमाव पहचानने की अपूर्व क्षमता, मावों का उतार-चढ़ाव चित्रित करने की मोहक मंगिमा और फिर दिखता है लड़नेवाले सरदारों को नामावली बताने की श्रातुरता, हथियारों के लक्षण और हिसाब बताने को उतावली, कवि चन्द की सिद्धियों की महिमा बखानने की उमंग और कथा को वेमतलव बोमिल और लल्टम-पस्टम बनाने की निबुद्धिक योजना! राखो विचित्र मिश्रण है। खैर ! इसके राजा कन्नौज के लिए प्रस्थान करते हैं। कवि को अनेक शकुनों और फलों के वर्णन का अवसर मिलता है। इस काल में शकुन पर पूरा विश्वास किया जाता था और शकुनों का यहाँ विस्तारपूर्ण वर्णन अपेक्षित ही है। बाद में पृथ्वीराज और उनके साथी वेश बदलकर कन्नौज पहुंचते हैं। कन्नौन का सुन्दर वर्णन दिया गया है। और जयचन्द की दासियों को गंगा में जल भरते देख कवि को नारी सौन्दर्य के मोहक वर्णन का बहाना मिल जाता है- द्विग चंचल चंचल तरुनि, चितवत चित्त हरति । कंचन कलस झकोरि के, सुन्दर नीर भरन्ति । इसके बाद दासियों के नख-शिख सौन्दर्य का वर्णन चिराचरित कविप्रथा के अनुसार होने लगता है। फिर नरा कतराकर कवि कन्नौज नगर का सुन्दरियों की शांभा का मी लगे हाथों उद्धार कर देता है। दासियों अभी पानी भर ही रही हैं। उनका बूंघट अचानक जरा सरका और सामने ल्प और शोभा के अगाध समुद्र दिल्ली-नरेश दिख गए । सोने का घड़ा हाथ में जो पड़ा था सो पड़ा ही रह गया, यूँघट छुटा सो छुट ही गया, वाग्रोध हो गया, वक्षात्यल के तटदेश पर पसीना झलक पाया, श्रोठ कॉप गए, आँखों में पानी भर आया, जडिमा और आलस्य के लक्षण भा और खेद प्रकट हो गए, गति शिथिल हो