पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/१०६

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चतुर्थ च्याल्यानं अनाड़ी चित्रकार ने पोता है या फिर चन्द बहुत अच्छे कवि नही घे। कथा का श्रारम्भ जिस ललित ऊर्जस्वल योजना के साथ हुया था उसे देखते हुए उसकी यह परिणति सामजस्य न पहचानने का चिह्न है। कथा की परवती परिणति बताती है कि शुरू मे मूल कवि ने इतना रंग नही पोता होगा। चन्द कुशल कवि ही थे। उन्होंने इस प्रेम- कथानक की बड़ी ही सुन्दर और सुकुमार योजना की थी। युद्ध का वर्णन उस प्रेम-प्रसंग को गाढ़ बनाने के उद्देश्य से आया है, सरदारो की मृत्यु-सूची बताने के लिये नहीं। जान पड़ता है, किसी उत्साही वीर कवि ने युद्ध के प्रसंग मे बहुत-कुछ जोड़कर वेकार ही उसे इतना घसीटा है। इस बात को यदि स्वीकार न किया जाय तो कहना होगा कि चन्द को सामंजस्य का बोध नहीं था। इस प्रकार संयोगितावाला प्रसंग निस्संदिग्ध रूप से मूल रासो का सर्वप्रधान अंग था यद्यपि अपने वर्तमान रूप मे वह बहुत-से प्रक्षिप्त अंशो के कारण विकृत हो गया है। इसके बाद शुकचरित्र है जिसके बारे मे पहले ही उल्लेख किया गया है कि कथा के प्रवाह के यह अनुकूल ही है। यद्यपि उसके बारे में निश्चयपूर्वक नही कहा जा सकता कि वह रासोकार की अपनी रचना है ही। अन्यान्य काव्यों की भाँति रासककाव्य मी मिलनान्त होते है। सयोगिता के मिलन के बाद कवि का उद्देश्य पूरा हो जाना ही संगत जान पड़ता है। शुकचरित्र के द्वारा इंछिनी हृदय शान्त करना भी संगत ही है। सन्देशरासक विरह-काव्य है, पर कवि अचानक अन्त मे मिलन की योजना कर देता है। विरहिणी अपना व्याकुल सन्देशा देकर ज्यों ही घर की भोर लौटना चाहती है त्यो ही उसका । पति दक्षिण की ओर से आता दिखाई देता है। इस प्रकार अप्रत्याशित 'अचिन्तउ' मिलन की योजना कवि को स्वयं थोडा उद्वेजक मालूम पडती है। लेकिन उसका उपयोग वह पाठक को श्राशीर्वाद देने मे कर लेता है-उस विरहिणी की कामना जिस प्रकार अप्रत्याशित रूप से छिन मर मे ही सिद्ध कर गई उसी प्रकार इस काव्य के पढ़नेवालों की भी पूरी हो-अनादि अनन्त देवता की जय हो- जेम अचिन्तिउ कज सुत, सिद्ध खणद्धि महन्तु । तेम पढन्त सुणन्त यह, जयर अणाइ अणन्तु । और तो और, कालिदास को भी विरह का समुद्र उद्धेल कर लेने के बाद मिलन करा देने की उतावली हो गई थी- श्रुत्वा वार्ती जलदकथितां तां धनेशोऽपि सद्य' शापस्यान्तं सदयहृदयः संविधायास्तकोपः । संयोज्यतो विगलितशुची दम्पती हृप्टचित्तौ भोगानिप्टानविरतमुखं भोजयामास शश्वत् ।। यही चिराचरित भारतीय प्रथा है। रासो की समाति भी श्रानन्द में ही होनी चाहिए। रासो में संबोगिता के माथ पृथ्वीराज के विलास का प्रवान वर्णन तो शुकचरित्र में ही मिल जाता है, पर अन्तिम हिस्सों में कई जगह बिना किसी योजना के और बिना किसी प्ररंग के (या जबदती लाए हुए प्रसंगों में) इस संयोग-सुख का वर्णन मिलता है।