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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

१०३ हिन्दी साहित्य का प्रादिकाले यह तो हुई चौपाई की बात, पत्ता दोहे से भिन्न छन्द है। यह ६ मात्राओं को छन्द होता है। प्रथम पक्ति मे १०, ८, १३ पर यति होती है और दूसरे चरण में भी यही क्रम रहता है.- पढमं दह बीसामो वीए मत्ताई अट्ठाहं । तीण तेरह बिरई, घत्त मत्ताई बासछि ।। उदाहरण यह है- रण दक्ख दक्ख हणु, जिराणु कुसुमधणु अंधा गंध बिलास करु। सो रक्खउ संकरु, असुर भयंकर गिरिणायरि अद्धंग धरु !! [जिसने रणदक्ष दक्ष को मारा, कुसुमधन्वा (काम) को जीता, वह पावती को अधांग में धारण करनेवाले असुर-भयकर शंकर रक्षा करे।] परन्तु व्यवहार मे घचा का शब्द का व्यवहार छेदन के अर्थ मे ही होता रहा और कई बार काव्यों में अरिल्ल या पन्झटिका के बाद उल्लाला या और कोई इसी तरह का 'द्विपंक्ति-लेख्य छन्द (Couplet) दे दिया जाता था । तुलसीदासजी की रामायण मे इसी कड़वक-पद्धति को श्राठ या कुछ कम-ज्यादे चौपाइयों के बाद दोहा का पत्ता देकर स्वीकार किया गया है। रामायण के प्रेमी पूरे कड़वक को भी दोहा ही कहते हैं। रामायण के दो 'दोहा' पढ़ने का मतलब होता है दो कड़वक पढ़ना । तुलसी-रामायण के इन कडवकों को दोहा-घचाक कड़वक कह सकते हैं। क्योकि रामायण में घत्ता के स्थान पर दोहा-छन्द का प्रयोग किया गया है। अपभ्रश के काव्यो मे भी पत्ता के स्थान पर अन्य छन्दों का व्यवहार हुया है।' (१) उदाहरणार्थ 'पउमसिरिचरिउ मे प्रथम सन्धि के पत्ते 'घत्ता' छन्द में है। एक उदाहरण यह है- पणमिनि जय सामिणि नय सुर कामिणि वागेसरि सिय कमल कर। पणयहँ सम्भावि जीएँ पभावि कविहिं पयट्टइ वाणि वर ॥ १४ ॥ किन्तु द्वितीय सैधि में दूसरा छन्द 'घत्ता' के लिए व्यवहृत हुआ है- अवयरिउ गइंदह, कुमरुलोय लोयण सुहउ। सहु बन्धवलोयहि, संखुवि विसरिउ संमुहउ॥३॥ (२) कई अपभ्रंश-काव्यों मे पत्ता को पत्ता छन्द में ही लिखने का नियम कठोरता के साथ अपनाया गया है, पर सबमे उतनी कड़ाई नहीं दिखाई गई। कभी-कभी शुरू में १. उदाहरणार्थ पुप्फयंत के 'यायकुमारचरित' की सातवीं संधि के प्रथम कडक का पत्ता यह है- कुडिलंकुस बस एहिं णिश्चमेव पडिवण्णउ । हस्थिहि सोहा वाणु मेहिं संबन्धणु दिगणउ ॥ फिर पउमसिरिचरित की विईयसधि के घने इस छन्द में हैं- बन्धश जण वल्लह गुरुयणि विनय मरंद गह । लंधिय रयणायर राहव खक्खण दोवि नई ।।