पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/११४

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पंचम व्याख्याने दुवई (द्विपदी) देकर अन्त मे किसी दूसरे छन्द में घत्ता दिया गया है। णायकुमार-चरित में इस नियम का बहुत सुन्दर निर्वाह हुश्रा है। कभी छोटे-छोटे छदों मे भी कडवक लिखे गये हैं। इन सब नियमों का परवर्ती काल मे अनुसरण हुआ है। अनेक छंदों में कथा कहने की प्रथा केशवदास की अपनी चलाई हुई नहीं है। करकंडचरिङ, गायकुमारचरित श्रादि मे छंद बदलने की प्रवृत्ति मिलती है । वस्तुतः छन्दों के मामले में अपभ्रश बहुत समृद्ध भाषा कही जा सकती है। अस्तु । दोहा का पत्ता अपभ्रश के कवियो मे एकदम अपरिचित तो नहीं था, जिनपद सूरि के थूलभद्दफागु मे इसका उदाहरण मिल जाता है। परन्तु प्रबन्ध-काव्य मे चौपाई-दोहा का क्रम बहुत लोकप्रिय नहीं हुआ। संभवतः पूर्वी प्रदेश के कवियो ने प्रबन्ध-काव्य में चौपाई और दोहा से बने कड़वकों का प्रयोग शुरू किया था। जायसी आदि सूफी कवियों ने इसी प्रथा का अवलम्बन किया था, परन्तु बीजरूप में यह प्रथा बौद्ध सिद्धों की रचनाओं मे मिल जाती है । सरहपा ने लिखा है- पंडित्र सबल सत्य बक्खाणइ । देहहि बुद्ध बसन्त ण जाण ।। गमणागमण न तेन विखण्डिअ । तोवि णिलज्ज भरणहि हउपण्डिअ॥ जीवन्तह जो नउ जरइ, सो अजरामर होइ । गुरु उवएसे विमल मइ, सो पर धरणा कोई ॥ पडित सकल शास्त्रों को ले वखानता है, पर देह मै ही बुद्ध बसते हैं, यह नहीं जानता। उसने आवागमन को तो खंडित नहीं किया तो भी वह निर्लज कहा करता है कि मैं पंडित हूँ। जो जीते-जी जीर्ण नहीं होता वही अजर-अमर होता है। वही धन्य है जिसे उपदेश से विमल गति प्राप्त हो गई है।] चौपाई-दोहे का सबसे पुराना प्रयोग शायद यही है । जो कुछ पुराना साहित्य उपलब्ध है उससे लगता है कि पूर्वी प्रदेश के बौद्ध सिद्धों ने ही इस शैली मे लिखना शुरू किया था। पश्चिम में पद्धड़िया-बंध अधिक प्रचलित था और पद्धडिया से कभी-कभी चौपाई का अर्थ भी ले लिया जाता था। जैसा कि जिनदत्त सूरि की चर्चरी के पूर्तिकार जिन- पाल के वक्तव्य से स्पष्ट होता है। किन्तु सब मिलाकर चौपाई-दोहा की पद्धति उधर दीर्घकाल तक लोकप्रिय नहीं हुई। गोरखनाथ की बताई जानेवाली वाणियों में भी इस पद्धति को कथाचित् खोज लिया जा सकता है और कबीरदास ने तो निश्चितरूप से इस पद्धति का व्यवहार किया था । इतने बड़े पृथ्वीराजरासो में इस पद्धति का बहुत ही कम स्थानो मे उपयोग हुआ है। रासो मे अयालीसवें समय (पृ० ११६८) मे एक स्थान पर चौपाई-दोहा की पद्धति मिलती है। यह अंश बहुत परवर्ती जान पड़ता है। छन्दों के आधार पर ही जो लोग रासो के प्रांचीनतम रूप का अनुमान करते हैं वे तो इसे प्रक्षित मानेंगे ही। ऐसा लगता है कि पूरन से ही यह प्रथा धीरे-धीरे पश्चिम की ओर गई है।