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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

१०४ हिन्दी साहित्य का आदिकाज एक मनोरंजक बात इस प्रसंग में यह है कि जिस प्रकार घत्ता के त्यान पर अपभ्रंश काव्य के कड़वका में दूसरे-दूसरे छन्द भी रख दिये जाते थे, उसी प्रकार परवत्तीकाल में अवधी के प्रबंधकाव्यों में दोहा के स्थान पर अन्य छन्दों के रखने की प्रवृत्ति का भी कुछ प्रमाण मिल जाता है। नूर मुहम्मद ने दोहा के त्यान पर बरवै रखकर अपने अनुराग- बॉसरी नामक प्रवन्धकान्य के कड़वकों की रचना की थी।' पर सव मिलाकर पूर्वी प्रदेशों में दोहा का ध्रुवक देने का नियम ही बना रहा। सरहपाद से लेकर द्वारकाप्रसाद मिश्र तक यह परंपरा लगभग अविच्छिन्नभाव से ही चली श्राई है। चौपाई छन्द ही कथानक छन्द है। सूरदास के नाम पर बहुत से पद चौपाई छन्दों में बद्ध मिलते हैं। कई प्रतियों में ये चौपाईबाले पद प्रास नहीं होते और कई में मिल जाते हैं। सूर-साहित्य के समालोचकों के लिये यह एक समस्या हो रही है। मुझे लगता है कि भावपूर्ण पदों के बीच, रासलीला श्रादि के समय कथासूत्र को जोड़ने के लिये ये चौपाई-बद्ध पद बाद में जोड़े गये होंगे । टोला के दोहों का कथासूत्र मिलाने में कुशल- लाभ ने इसी कौशल का सहारा लिया था। सो, यद्यपि अपभ्रंश के श्रारम्भिक काव्य में चौपाई-जैसे कथानकसूत्र-योजक छन्द का प्रचलन हो गया था और चौपाई के साथ अपभ्रंश के लाडिले छन्द दोहा का गठबन्धन भी हो चुका था; पर कया-काव्य के लिये इसका महत्त्व बाद में समझा गया। धीरे-धीरे अपभ्रंश में भी बड़े-बड़े छन्द लिखे जाने लगे। रोला, उल्लाला, वीर, कन्च, छपय और कुण्डलिया अपभ्रंश के अपने छन्द है। धीरे-धीरे अपभ्रंश की कविता मी श्राडम्बरपूर्ण होती गई। छप्पय और कुण्डलिया जैसे छन्दों को उमालकर वीरदर्प की ओजस्विनी कविता लिखना भाषा की प्रौढ़ता का सबूत है। ___ चंदबरदाई छप्पयों का राजा था। बहुत पहले शिवसिंह ने यह बात लिखी थी और रासो असल में छप्पयों का ही काव्य है। कविराज श्यामलदास को रासो में छप्पय और दूहा के अतिरिक्त और किसी छंद का अस्तित्व ही नहीं मानते, और वैसे तो हर तलवार की झन्कार में चन्दवरदाई तोटक, तोमर, पद्धरी और नाराच पर उत्तर पाते हैं, पर जमकर वे छप्पय और दूहा ही लिखते हैं। यह अत्यन्त संकेतपूर्ण तथ्य है कि चन्दवरदाई के नाम से १. एक उदाहरण- बनो पंच डोक मनमाँही । मानलीनता आवे नाहीं ।। सावै माइ सुवा उपदेसी ।दोऊ दिसि ते घनो संदेसी॥ दुइ मन मिले धीच जो होई । सो व्यवहार न जाने कोई ।। नित पलुहाइ नेह की बेली । फूल खागि प्रीति की कली।। हित प्रगटाचे ऊमी साँस् । बदन गोरना चख के आँसू ।। कैसे छुपे नेह दुख भारी । जहाँ आँसु ऐसी विभिचारी ॥ नेह न छिपे छिपाएँ जिमि मृगसार । चहुँ दिसि लै पहुँचा बचन बयार ॥ -अनुरागबाँसुरी, साक्षात खंड