पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/१२२

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पंचम व्याख्यान बज चुकी थी। हेमचन्द्र के व्याकरण, प्रबंधचिंतामणि, सन्देशरासक और ढोलामारू के दोहों में इस छन्द की भाववाहन-योग्यता अद्भुत रूप मे प्रमाणित हो चुकी थी। ऐसे छन्द को तुलसी बाबा कब छोड़नेवाले थे| इसे पवित्र भक्ति की मन्दाकिनी मे स्नान कराने का श्रेय उन्हीं की है। मगलकान्य की परम्परा बंगाल में प्राप्त होती है। जान पड़ता है कि तुलसीदास के पूर्व इस प्रकार के मंगलकान्य बहुत लिखे जाते थे। बगाल मे पाये जानेवाले मंगल- काव्यों मे देवताओं के यश वर्णित हैं। कबीर के नाम पर 'श्रादिमगल', 'अनादि-मंगल' और 'श्रगाधमंगल' नाम के तीन मगलकाच्य मिलते हैं। तुलसीदास ने 'पार्वती-मगल' और 'जानकीमंगल' नाम से दो मंगलकाव्य लिखे हैं जो वस्तुतः विवाह-काव्य हैं। इस पर से अनुमान किया जा सकता है कि मंगलकाव्य प्रधानतः विवाह-काव्य थे। पृथ्वीराज- रासो के ४६वे समय में 'विनयमंगल' नाम का एक काण्ड जोड़ दिया गया है। यह भी विवाहकाव्य है। प्रसंग संयोगिता की शिक्षा का है। संयोगिता को उस्की गुरु ब्राह्मणी ने वधूधर्म की शिक्षा दी थी। ऐसा जान पहता है कि यह "विनयमगल' कोई पृथक काव्य था जो बाद में रासो मे जोड़ दिया गया है। अध्याय के मध्य मे ही 'इति विनयकाण्ड समाप्त' कहा गया है जो इस बात का सूचक है कि यह विनयकाण्ड पूरा का पूरा कहीं से उठाकर इसमे जोड़ दिया गया। आगेवाले अध्याय में फिर से विनयमगल का प्रसग श्रा जाता है। ऐसा गड-मड क्यों हुना। संयोगिता की शिक्षा का यह प्रकरण मूल रासो का अग था, उसमें विनयमंगल का प्रसग देखकर बाद मे किसी इसी नाम की पूरी पुस्तक को वहॉ जोड दिया गया है। रासोवाला विनयमगल इस बात का सबूत है कि मंगल- साहित्य बगाल से राजस्थान तक किसी समय व्याप्त था। कबीरदास का 'श्रादिमगल' अपनी व्याख्या के लिये एक छोटे-से उपास्यान की अपेक्षा रखता है। परवर्ती कबीरपन्थी प्रथों मे सृष्टि-प्रक्रिया का यह उपाख्यान मिल जाता है। मैंने अन्यत्र बगाल के धर्ममंगल- साहित्य से इसकी तुलना करके दिखाया है कि ये दोनों साहित्य एक दूसरे के पूरक हैं। सभवतः तुलसीदास ने जब 'कहानी-उपखान' वालो की खबर ली थी तो मंगल-साहित्य के प्रय भी उनकी दृष्टि में थे | बंगाल मे पाये जानेवाले मगल-काव्य पौराणिक उपाख्यान- जैसे ही हैं और सचमुच ही उनमे 'घरमनिरूपन' का प्रयास है। उत्तरभारत से अब उस श्रेणी का साहित्य प्रायः लुस हो गया है । पजाब मे रुक्मिणीमगल नामक लोकगीत अब भी गॉवों मे गाये जाते हैं। श्री महेन्द्र राजा ने एक ऐसे ही लोकगीत का सधान बताया है (जनपद अक ३)। और मी प्रदेशों में ऐसे काव्य जीवित होंगे। पूर्वी जिलों में मॉगर (मगल) विवाह गीत ही हैं। पर तुलसी-पूर्व युग मे विवाहपरक मंगलकाव्यों के साथ ही 'उपखानमूलक', मंगलकाव्य भी अवश्य लिखे जाने होंगे। कबीर के नाम पर बाद में लिखे गए अनेक मगल और उपखान-ग्रन्थ इसके साक्षीरूप मे जीवित हैं। तुलसीदास के द्वारा प्रयुक्त अन्य काव्यरूपों को देखकर भी अनुमान होता है कि उस प्रकार के काव्यरूप पहले वर्तमान थे। अभी तक मैंने पदों के साहित्य को नहीं लिया। अब उसका भी प्रसंग पा रहा है। किन्तु उसकी चर्चा करने के पहले तुलसीदास ने जिस