पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/१२४

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पंचम व्याख्यान ११३ कबीर-साहित्य में तो दोहे का अर्थ ही साखी हो जाता है। अन्य निगुणिया संतों के संप्रदाय में भी साखी शब्द का प्रचलन है। प्रायः साखी की पुस्तकों का विभाजन अंगों मे हुश्रा करता है अर्थात् साखी साक्षात् गुरुस्वरूप है। इसीलिये संत लोग अन्य दोहों से साखी को भिन्न वस्तु मानते हैं। स्मैनियो के साथ साखी को उसकी प्रामाणिकता बढ़ाने के लिये जोड़ा जाता है। मेरा विश्वास है कि रमनी शब्द कबीर-सम्प्रदाय मे बहुत बाद मे चला है; परन्तु साखी शब्द निश्चय ही पुराना है। 'शब्द' गेय पद हैं। पुराने सिद्ध गेय पदो को किसी-न-किसी राग के नाम से ही लिखते थे; जैसे राग 'गवडा' (गोड), राग धनाश्री इत्यादि । यह प्रथा सूरदास, तुलसीदास और दादू आदि संतों मे भी पाई जाती है। गुरुग्रन्थसाहब मे भी पदों के राग निर्दिष्ट हैं और कबीरदास के जो पद उसमे संकलित हैं उनके रागों का भी निर्देश कर दिया गया है। कबीर-ग्रन्यावली में भी पदों के गेय रागों का निर्देश है। यहाँ तक कि रमैनी का भी राग 'सूहौ' निर्दिष्ट है। केवल बीजक में इस नियम का अपवाद है। यहाँ केवल 'शब्द' कहकर सन्तोप कर लिया गया है। क्यों ऐसा हुश्रा, इसका कोई स्पष्ट कारण नहीं मालूम । आदिग्रन्थ मे बीजक के कुछ पद मिल जाते हैं। परन्तु अधिकाश शब्द उसमे नहीं हैं। हमने 'कबीर' नामक अपनी पुस्तक मे दिखाया है कि तुलसीदास को बीजक के एक सौ नवे पद का पता था जिसमें 'दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना, राम नाम को मरम है श्राना' कहा गया है। 'शब्द' गोरखनाथियों में भी है प्रचलित था। ऊपर बताया गया है कि सन्तो ने लोकप्रचलित काव्य-रूपों को अपनाया और उसमें अपना उपदेश प्रचारित किया है। इस बात का एक मनोरजक उदाहरण है ढोला मारू के दोहों का कबीर के नाम से थोडा परिवर्चन के साथ पाया जाना। 'ढोला-मारूरा दोहा' के सम्पादकों ने कबीर के दोहों में से ऐसे बहुत खोज निकाले हैं जो बहुत कुछ मिलते हैं। मेरा अनुमान है कि ये दोहे बहुत अधिक लोकप्रिय होंगे और कबीर या कबीरमत के अन्य सन्तों ने उनमें थोडा परिवर्तन करके अपना सिद्धान्त प्रचार करना चाहा होगा। दो-एक उदाहरण लोजिए- (१) ढोला--राति जु सारस कुरलिया गुंजि रहे सव ताल। जिणकी जोड़ी बीचड़ी तिणका कवण हवाल ।। कबीर-अंबर कुजॉ कुरलियाँ गरजि भरे सब ताल । जिनि गोविन्द बीछुटे तिनके कौल हवाल ।। (२) ढोला- यह तन जारौं मसि कलें, धूआँ जाहि सरम्गि । मुझ प्रिय बद्दल होइ करि चरसि बुझावै अम्गि । १. बीजक का शब्द ७३, आदिग्रन्थ के सोरठ २ से " " ॥ ११२ , , गौड़ी ४२ से " "." ९७ , , प्रभाती २ से " , चाँचरी २ , , गौड़ी ५७ से तुलनीय