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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी-साहित्य का प्राधिकास कबीर-यहु तन जालौं मसि करौं जसु धुआँ जाय सरग्गि । मति वै राम दया करै बरसि बुभावै अग्गिः ॥ कबीर-चहु तन जालौ मसि करौ लिखौ राम का नाँउ । (३) ढोला--सुहिणा तोहि मरावियूँ, हियइ दिराउँ छेक । जद सोउँ तद दोइ जन, जद जागूं तद हेक ॥ कबीर-कबीर सुपनै रैनिकै पारस जियमै छेक। जो सोऊँ तो दोइ जण जे जाएँ तो एक ॥ (४) ढोला-चिंता बंध्यउ सयल जग, चिंता किणहि न बद्ध । जे नर चिंता बस करइ, ते माणस नहिं सिद्ध ॥ कबीर-संसै खाया सकल जगु संसा किनहुँ न खद्ध । जे बेधे गुरु अष्षिरां तिनि संसा चुणि चुणि खद्ध । (५) ढोला-तालि चरति कुंझडी सर सँधियउ गॅमारि। कोइक आखर मनि वस्यउ, ऊँडी पंख सँभारि ।। कबीर-काटी बूटी मछली चौक धरी चहोड़ि। कोई एक अपिर मन बस्या दहमैं पड़ी बहोड़ि ॥ इस प्रकार के और भी अनेक दोहे मिलते है। इसी तरह हेमचन्द्र के व्याकरण मे एक दोहा मिलता है जिसे सूरदास की कहानी मे भक्तिप्रचार के उपयोग मे लाया गया है । दोहा इस प्रकार है- बाह विछोडवि जाहि तुहुँ, हउँ तेवइँ को दोषु । हिअहिश्र जइ नीसरहि, जाणउँ मुंज सरोस । [बह छुड़ाकर तुम जा रहे हो मैं तुम्हें क्या दोष दूं। ऐ मुंज, तुम हहय में स्थित हो, यहाँ से निकलो तो समयूँ कि तुम सचमुच सरोष हो!] स्पष्ट ही यह बात किसी ने मुंज से कही है। सूरदासवाली कहानी मे इससे मिलता- जुलता दोहा सूरदास के मुख से भगवान को संबोधित करके कहलाया गया है- बॉह छुड़ाए जात हो निबल जानि के मोहि । हिरदय से जब जाहु तो, सबल बदौंगो तोहि ॥ सभी देश मे जनसाधारण में प्रचलित काव्यरूपो को सन्तों ने अपने मतप्रचार का साधन बनाया है। हमारे देश के सभी सम्प्रदाय के सन्तो ने ऐसा किया है। हमने पहले ही देखा है कि तेरहवी शताब्दी के जिनदत्त सूरि नामक जैन सन्त ने लोक-प्रचलित चर्चरी और रासकजाति के गीतों का सहारा लिया था। चर्चरी उन दिनों जनवा मे बड़े चाव से गाई जाती थी। श्रीहर्षदेव को रत्नावली से और वाणभट्ट की पुस्तकों से चर्चरीगान की सूचना प्राप्त होती है। बारहवीं शताब्दी मे सोमप्रभ ने वसन्तकाल में चर्चरीगान सुना था- पसरन्त चारु चच्चरिव भानु। तेरहवीं शताब्दी के लक्षण नामक कवि ने 'जउणा,ण्इ उत्तर तडित्थ' (अर्थात् यमुना नदी के उत्तरी तट पर बसे हुए) रायवडिय (रायभा शहर) का वर्णन किया है जो आगरे के अासपास कहीं रहा