पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/१३०

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पंचम व्याख्यान हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण मे जो अपभ्रश के दोहे संगृहीत हैं वे उनके समय के पहले के हैं। कुछ ऐसे भी होगे जो उनके या उनके समसामयिक कवियों के लिखे होंगे। उनमे मी राधा का प्रधान गोपीरूप मे ही उल्लेख है। इस दोहे में राधा के वक्षःस्थल' की महिमा इस प्रकार बताई गई है कि इसने ऑगन मे तो हरि को नचा ही दिया, लोगों को विस्मय के गर्त मे गिरा ही दिया (इससे बड़ी सफलता इसकी क्या हो सकती है) सो, अब इसका जो होना हो सो हो- हरिणाच्चाइव अंगणइ विम्हइ पाडिउ लोइ। एम्वहिं राह पयहोरं जं भावइ त होइ ।। [इन्होंने हरि को नचा दिया ऑगन मे, विस्मय मे डाल दिया लोगो को, अब राधा के इन पयोधरों का जो भावै सो हो।] जो लोग गाथाशप्तशती मे आए हुए राधा शब्द को सन्देह की दृष्टि से देखते हैं उन्हें श्राश्वस्त होकर इतना तो कम-से-कम मान ही लेना चाहिए कि नवीं-दशवीं शताब्दी; मे राधा का नाम उत्तरभारत मे अत्यन्त परिचित हो चुका था, इसलिये वर्तमान पृथ्वीराज- रासो मे सयोजित 'दसम्' अर्थात् 'दशावतारचरित' में राधा नाम आ जाने मात्र से यह नहीं सिद्ध होता कि यह रचना चन्द की नहीं है। परन्तु मैं यह भी नहीं कह रहा हूँ कि यह रचना चन्द की है ही। मेरा निवेदन केवल इतना ही है कि यह दसम् किसी अच्छे कवि की रचना है और भक्तिकाल के पूर्ववत्ती दशावतारवर्णन-परपरा का एक उत्तम निदर्शन है। विनयमगल की ही भाँति इसे भी भक्तिपूर्वकाल की साहित्यिक रचना-प्रवृत्ति का निदर्शन मानना चाहिए। ये दोनों रचनाएँ 'रासो' से बाहर की हैं। यह भी सम्भव है कि चन्द ने अलग से इन दो पुस्तकों की रचना की हो और बाद में वे रासो के साथ जोड़ दी गई हों। या फिर यह भी हो सकता है कि ये किसी अन्य अच्छे कवि या कवियों की रचनाएँ हों। रासो मे ये जोडी गई हैं, यह स्पष्ट है। दशावतार का कोई प्रसग नहीं था। यदि था भी तो बहुत थोड़ा, उसको इतने विस्तार से कहने की वहाँ कोई आवश्यकता नहीं थी। जान पड़ता है फि रासो मे कुछ थोडा-सा प्रसग देखकर किसी ने बाद मे इस पुस्तक को उसमे जोड़ दिया है और विनयमंगल तो स्पष्टरूप से अलग पुस्तक है। उसके समाप्त हो जाने के बाद भी रासो मे विनयमगल' का प्रसग चलता रहता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि उस स्थान पर विनयमंगल का थोड़ा- सा प्रसंग देखकर किसी ने वहाँ पर इस पूरी पुस्तक को जोड़ दिया है। वस्तुतः ये दोनों ही भक्तिकाल के पूर्व के काव्यरूपों के उत्तम नमूने हैं। तुलसीदास ने 'साखी' के अतिरिक्त धर्म-निरूपण के एक और साधन का भी उल्लेख किया है। वह है दोहरा। दोहरा का अर्थ दोहा ही है। पर साखी से भिन्न ये दोहे क्या रहे होंगे। नाथपथियों और कबीर-पथियों के 'धरम-निरूपणपरक' दोहे 'साखी' कहे जाते हैं। बाकी जेनों में प्रचलित एक प्रकार के अपभ्रश दोहे हैं, जिनका स्वर बहुत कुछ निर्गुणियों के दोहों से मिलता है, पर वे साखी न कहलाकर 'दोहे' ही कहलाते रहे हैं। ऐसे दोहों के दो-तीन पुराने अन्य पाये गये हैं। उनकी चर्चा यहाँ श्रावश्क हैक्योंकि आगे चलकर हिन्दी-साहित्य में सन्तों ने जो दोहे लिखे हैं वे इन्हीं दोहों के स्वर में हैं।