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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

१२५ हिन्दी साहित्य का आदिकाल स्वर भी उनका वही है। जोइन्दु का परमात्मप्रकाश तथा योगसार और मुनिराम सिंह के पाहुह दोहे ऐसे ही ग्रन्थ हैं। यह श्राश्चर्य की बात है कि तुलसीदास ने जहाँ लोकप्रचलित और जनता को आकृष्ट करनेवाले सभी छन्दों और काव्यरूपों को राममय करने का प्रयत्न किया वहाँ उन्होंने बाल्दा या, वीर छन्द को नहीं अपनाया। इस बात से यद्यपि निश्चित रूप से तो कुछ नहीं सिद्ध होता; परन्तु अनुमान किया जा सकता है कि तुलसीदास के काल मे आल्हा का प्रचार नहीं था। या तो वह उन प्रदेशों मे उस समय तक अाया ही नहीं जिनमे तुलसी- दास विचरण किया करते थे या फिर वह तबतक लिखा ही नही गया; क्योंकि इतनी प्रभावशालिनी और लोकाकर्षक काव्यपद्धति को जानते हुए भी तुलसीदास न अपनाते,- यह बात समझ मे आने लायक नहीं है। विशेष करके जब राम का चरित्र इस पद्धति के लिये बहुत ही उपयुक्त था। वर्तमान श्राल्हा बहुत बाद मे सगृहीत हुआ है और इसके आधार पर कुछ भी कह सकना संभव नहीं। इस प्रकार पूर्ववर्ती और परवर्ती साहित्य के काव्यरूपों से हम अनुमान कर सकते हैं कि हमारे बालोच्य काल मे मध्यदेश मे कौन-से काव्यरूप प्रचलित थे ।