पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/१४

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प्रथम व्याख्यान दोहों तथा 'प्रवन्ध-चिन्तामणि' तथा 'कुमारपालप्रतिबोध मे सगृहीत दोहों का ही उल्लेख किया था। इन पुस्तकों के बाहर वे बहुत कम गए । शार्ङ्गधर-पद्धति मे प्राप्त हुए कुछ अपभ्रंश-वाक्यों का उल्लेख उन्होंने अवश्य किया। उन दिनों अपभ्रश की बहुत थोड़ी ही रचनाएँ उपलब्ध थी। वस्तुतः गुलेरीजी के स्वर्गवास के बाद अपभ्रंश की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ प्राप्त होने लगीं। हिन्दी-साहित्य का यह अत्यन्त भयंकर दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि गुलेरीजी-जैसा पारखी मापाविद् और साहित्यरसिक अपभ्रंश की उस समस्त सामग्री को देखने का अवसर नहीं पा सका, जो श्राजउपलब्ध है। गुलेरीजी भाषा के पारखी थे, सस्कृत, प्राकृत आदि साहित्यों के जानकार थे और सच्चे रस-मर्मज्ञ थे। अत्यन्त अल्प अवस्था में वे महाकाल के दरबार में बुला लिए गए। गुलेरीजी के जीवित काल मे यद्यपि अपभ्रश-साहित्य का बहुत अधिक प्रकाशन नहीं हुना था तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि इस भाषा और साहित्य के विषय में कुछ चर्चा हुई ही नहीं थी। गुलेरीजी के प्रबन्ध मे ऐसी कई रचनाओं के सम्बन्ध मे चर्चा नही मिलती, जिनका प्रकाशन उनके जीवन-काल मे हो चुका था। सम्भवतः उनको समय नहीं मिला और वे प्रबन्ध को आगे नहीं बढा सके। बीच मे ही सब कुछ को छोड़कर उन्हें चल देना पड़ा। शुक्लजी ने गुलेरीजी के अध्ययनों का उपयोग किया, परन्तु व्यापक दृष्टि रखते हुए भी उन्हें उन रचनाओं को देखने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ जो, गुलेरीजी से छूट गई थीं। यह तो पहले ही कहा गया है कि सन् १८८३ ई० मे हिन्दी-साहित्य के इतिहास की प्रथम रूपरेखा तैयार की गई थी। इसके कई वर्ष पूर्व सन् १८७७ ई० में सुप्रसिद्ध भाषाशास्त्री जर्मन पं० पिशेल ने जर्मनी के 'हाल' नगर से हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण का बहुत अच्छा सुसम्पादित संस्करण प्रकाशित किया था। आज भी यह ग्रन्थ भाषाशास्त्रियो के लिए उतना ही महत्वपूर्ण बना हुआ है, जितना कमी भी था। हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण के अन्त मे अपभ्रंश भाषा का व्याकरण दिया है और उदाहरण बताने के लिये ऐसे पूरे दोहे उद्धृत किए हैं, जिनमें वे पद पाए हैं। पिशेल ने अन्य प्राकृतों के साथ अपभ्रश का भी विवेचन किया था। बाद में केवल अपभ्रंश अश को लेकर उन्होंने एक विस्तृत विवेचनात्मक पुस्तक लिखी। भामह और दण्डी (सप्तम शताब्दी) के समय में, अपभ्रश का साहित्य वर्तमान था। बाद के रुद्रट, राजशेखर, भोज आदि आलंकारिकों ने भी अपभ्रंश की चर्चा की है। इसलिये यह तो पिशेल ने अनुमान कर ही लिया था कि अपभ्रंश का बहुत विपुल साहित्य इस देश में वर्तमान था, परन्तु इस माषा के व्याकरण के सम्बन्ध में कठिन परिश्रम के साथ पुस्तक तैयार करने के बाद भी उन्हें इस बात का दुःख था कि अपभ्रश का विपुल साहित्य खो गया है। फिर भी उन्होंने अपभ्रंश-साहित्य की रचनाओं को खोजने मे कोई बात उठा नहीं रखी । हेमचन्द्र केव्याकरण मे प्राप्त दोहों के अतिरिक्त उन्होंने विक्रमोर्वशीय, सरस्वतीकण्ठाभरण, वैतालपंचविंशति, सिंहासनद्वात्रिंशतिका और प्रबंध-चिंतामणि आदि ग्रन्थों में पाए जानेवाले अपभ्रंश-पद्यों को तथा प्राकृतपैङ्गलम् में उदाहरण-रूप से उद्धृत कविताओं को ढूंढ निकाला । सन् १६०२ ई० में उन्होंने 'माटेरियालियन् सुर केण्टनिस हेस अपभ्रंश' नामक पुस्तक को अपने प्राकृत-व्याकरण का परिशिष्ट कहकर प्रकाशित किया।