पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथम व्याख्यान स्वयम्भू का 'पउमचरिउ', 'हरिवंशपुराण' श्रादि पुस्तके प्रास हुई। उन्हीं दिनो हिन्दी-जगत् के सुपरिचित विद्वान् पं० नाथूराम प्रेमी ने जैन-साहित्य-संशोधक नामक त्रैमासिक पत्र मे 'पुष्पदन्त और उनका महापुराण' नामक महत्त्वपूर्ण लेख लिखा । उन्होंने अपभ्रश-अन्यो के बारे मे और भी कई महत्त्वपूर्ण लेख लिखे, जो अब 'जैन-साहित्य का इतिहास' नामक ग्रन्थ मे सगृहीत हो गए हैं । प्रेमीजी ने जसहरचरिउ, णायकुमारचरिउ नामक दो और अपभ्रश- ग्रन्थ खोज निकाले। फिर प्रोफेसर हीरालालजी जैन ने कारजा के जैन-भाण्डार से कर- कण्डुचरिउ, सावयधम्म दोहा, पाहुड दोहा आदि कई ग्रन्थों को खोज निकाला और सम्पादित करके उन्हें प्रकाशित भी कराया। महापंडित राहुल साकृत्यायन ने स्वयम्भू और पुष्पदन्त की हस्तलिखित पोथियों से संग्रह करके कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाएँ अपने 'काव्यधारा' नामक ग्रन्थ मे प्रकाशित की हैं । इधर कई विद्वानों ने इस साहित्य का गभीर अध्ययन किया है जिनमे श्रीमुनिजिनविजय, आदिनाथ उपाध्ये, डॉ. हीरालाल, डॉ० परशुराम वैद्य, प. लालचन्द्र गान्धी, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन और डॉ. अल्सडोर्फ प्रभृति विद्वानों के नाम विशेप- रूप से उल्लेख-योग्य हैं। इन विद्वानों के परिश्रम से अनेक अपभ्रश-ग्रन्थो का प्रकाशन हुश्श्रा है और अब यह नहीं कहा जा सकता कि अपभ्रंश का साहित्य एकदम लुस हो गया है। __ सन् १९५० ई० मे श्रीकस्तूरचन्द कासलीवाल एम० ए० शास्त्री के सपादकत्व मे आमेर-शास्त्रमाण्डार (जयपुर) के ग्रन्थों का एक प्रशस्ति-सग्रह प्रकाशित हुआ है, जिसमे लगभग ५० अपभ्रंश-प्रन्थों की प्रशस्तियों संगृहीत हैं। इनमे कुछ का तो विद्वानों को पहले से भी पता था, कुछ नई हैं। इनमे स्वयभू, पुष्पदन्त, पद्मकीर्ति, वीर, नयनन्दि, श्रीघर, श्रीचन्द, हरिपेण, अमरकीर्ति, यश कीर्चि, धनपाल, श्रुतकीर्ति और माणिक्यराज रहबू आदि की कृतियों हैं। अधिकाश रचनाएँ १३वीं शताब्दी के बाद की बताई गई हैं, पर उसके बाद भी १६वीं शताब्दी तक अपभ्रंश मे रचनाएँ होती रही हैं। इस प्रशस्ति- संग्रह के रइधू, यश.कीर्ति, धनपाल, श्रुतकीर्ति और माणिक्यराज चौदहवीं और उसके बाद की शताब्दियों के कवि हैं। ये ग्रन्थ अधिकतर जैन-ग्रन्थ-माण्डारों से ही प्राप्त हुए हैं और अधिकाश जैनकवियों के लिखे हुए हैं। स्वभावतः ही इनमे जैनधर्म की महिमा बताई गई है और उस धर्म के स्वीकृत सिद्धान्तों के श्राधार पर ही जीवन बिताने का उपदेश दिया गया है। परन्तु, इस कारण से इन पुस्तकों का महत्त्व कम नहीं हो जाता। परवर्ती हिन्दी-साहित्य के काव्य रूप के अध्ययन में ये पुस्तके बहुत सहायक है। . किन्तु यह नही समझना चाहिए कि जैनेतर मूलों से अपभ्रंश का साहित्य एकदम मिला ही नहीं । सन् १६०२ ई० मे ही चन्द्रमोहन घोष ने 'प्राकृतपैङ्गलम्' नामक छन्दोविधान के ग्रन्थ का सम्पादन समाप्त किया था। इसका प्रकाशन बिब्लियोथिका इडिका सिरीज़ मे हुआ। इसमे बहुत-सी अपभ्रश-कविताएँ उदाहरण-रूप मे सगृहीत हैं । यद्यपि बहुत पहले ही पिशेल ने इस पुस्तक मे सगृहीत कविताओं पर विचार किया था फिर भी दीर्घकाल तक पुराने हिन्दी साहित्य की आलोचना के प्रसंग मै इस ग्रन्थ की उपेक्षा ही होती रही। बहुत बाद मे भाकर प्राचार्य रामचन्द्र शुक्लजी ने इस पुस्तक मे सगृहीत रचनाओं का उपयोग किया था। सन् १३२३ वगाब्द, अर्थात् सन् १९१६ ई० मे महामहोपाध्याय प० हरप्रसाद शास्त्री ने