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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी-साहित्य का आदिकाल 'बौद्ध गान ओ दोहा' नाम से कुछ अपभ्रश की पुस्तके प्रकाशित कराई । इन पुस्तकों की भाषा को उन्होंने प्राचीन बॅगला कहा । पुस्तक नाना दृष्टियों से बहुत महत्त्वपूर्ण थी; परन्तु जान पडता है कि वंगाक्षरों मे छपी होने के कारण हिन्दी के विद्वानों का ध्यान इसकी ओर उस समय आकृष्ट न हो सका। इसके दोहों की भाषा मे परिनिष्ठित या स्टैण्डर्ड अपभ्रंश के रूप ही मिलते हैं; पर पदों में पूर्वी प्रदेश की भाषा के चिह्न भी मिल जाते हैं। इन चिह्नों को देखकर कभी इस भाषा को बॅगला का पूर्वरूप कहा गया है तो कभी मैथिली और मगही का और कभी भोजपुरी का । कुछ लोगों ने इसमे उडिया-मापाका पूर्वरूप भी देखा है। निःसन्देह हिन्दी-साहित्य के परवर्ती काव्य-रूपो के अध्ययन की दृष्टि से यह पुस्तक अत्यन्त ही उपादेय है। इस पुस्तक के प्रकाशन के करीब बीस वर्ष आद, महापडित राहुल साकृत्यायन ने इन रचनाओं की ओर हिन्दी के विद्वानो का ध्यान श्राकृष्ट किया। अपनी तिब्बत-यात्रा मे वे इस श्रेणी के कुछ और साहित्य का भी पता पा चुके थे। राहुलजी ने बताया कि इन पदो की भाषा को बॅगला नहीं, हिन्दी कहना चाहिए। राहुलजी के इस मत का समर्थन और विरोध काफी मात्रा में हुआ | हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी उससे थोड़ा बहुत परिचित ही है। इसलिए उस विवाद मे पड़ने की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है। जो बात निःसंदिग्ध है, वह यह है कि इस पुस्तक की भाषा मे मारतवर्ष के पूर्वी प्रदेशों की भाषा के लक्षण मिल जाते है। उसकी इस भाषा को बॅगला, मगही, मैथिली, भोजपुरी, उडिया सभी का पूर्वरूप कहा जा सकता है। ध्यान देने की बात यह है कि इन पुस्तको में जिन काव्य-रूपो का परिचय मिलता है, वह बंगला में अब लुप्त हो चुके हैं। परन्तु हिन्दी में अभी तक जी रहे है । दोहों की प्रथा बंगाल की साहित्य मे कभी रही ही नहीं और सही बात तो यह है कि बॅगला भाषा की एक ऐसी उच्चारणगत विशिष्टता है कि दोहा छन्द उसमे जम ही नहीं पाता। मैं यह तो नही कहता कि बगाल का कोई कुशल कवि चाहे तो भी बॅगला को दोहा छन्दो मे ढाल ही नहीं सकता, परन्तु इतना अवश्य कहना चाहता हूँ कि बॅगला भाषा की प्रकृति दोहा के अनुकूल नही है। बौद्ध गानों मे भी जिस श्रेणी की पदरचना है, वह आगे चलकर कबीर आदि सन्तो की रचनाओं मे अधिक मुखर हुई। यह तो नहीं कहा जा सकता कि बॅगला भाषा में उसका चिह्न ही नहीं मिलता; परन्तु वह अधिक लोकप्रिय वगाल के बाहर ही हुई। बॅगला की वैष्णवपदावली मे उसका एक रूप प्राप्त अवश्य होता है। माधारण बॅगला से फर्क करने के लिये इसे 'बजबुलि' कहा जाता है। शायद यह इस बात का प्रमाण है कि वैष्णव कवियों ने यह समझ लिया था कि इस प्रकार की पदरचना बॅगला-भाषा की प्रकृति के अनुकूल नहीं। जो हो, इसमें कोई सन्देह नहीं कि दोहा और पदो की परम्परा अविच्छिन्न रूप से हिन्दी-साहित्य मे चली आई है और काव्य-रूपों और विचार-प्रवाह की दृष्टि से इन गानों और दोहों का सम्बन्ध परवर्ती हिन्दी-साहित्य से ही अधिक है। भाषा की दृष्टि से वह जो कुछ भी क्यों न हो। सन् १९१८ ई. और सन् १९२१ ई. के जरनल ऑफ डिपार्टमेण्ट ऑफ लेटर्स (कल- कत्ता-विश्वविद्यालय) मे डॉ. प्रबोधचन्द्र बागची ने कुछ और बौद्ध सिद्धों के दोहे प्रकाशित कराए। बाद मे पुस्तकाकार मे भी इनका सकलन प्रकाशित हुश्रा।