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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का आदिकाल इनमें से कुछ थोडे-से कवियों की चर्चा हिन्दी-साहित्य के इतिहास-लेखकों ने पहले भी की थी, परन्तु अधिकाश हिन्दी-साहित्य मे अपरिचित ही थे। बहुत पहले ग्रियर्सन ने अपनी एक पुस्तक में सूचना दी थी कि विद्यापति की दो रचनाएँ देश्य-मिश्रित अपभ्रश-भाषाओं में है। एक का नाम है---कीर्तिलता और दूसरी का कीर्तिपताका | इनमे से कीर्चिलता को नेपाल-दरवार-लायब्रेरी से संग्रह करके महामहो- पाध्याय पं० हरप्रसाद शास्त्री ने बॅगला अनुवाद के साथ चंगाक्षरों मे सन् १९२४ ई. में प्रकाशित कराया था। फिर बाद मे यह पुस्तक सन् १९२९ ई० में प्रयाग-विश्वविद्यालय के अध्यापक डॉ. बाबूरामजी सक्सेना के द्वारा अनुवादित और सम्पादित होकर काशी-नागरी- प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हुई । हाल ही में काशी-विश्वविद्यालय के श्रीशिवप्रसाद सिंह ने इसका एक नया संपादित संस्करण प्रकाशित कराया है, जो परिश्रमपूर्वक प्रस्तुत किया गया है। इस पुस्तक की भाषा को कवि ने स्वयं अवहट्ट (सस्कृत 'अपभ्रष्ट', अर्थात् अपभ्रंश कहा था । इसमे बीच-बीच मे मैथिली भाषा के प्रयोग आ गये है। भाषा के अध्ययन की दृष्टि से इस पुस्तक का महत्त्व है ही, कान्यरूपों के अध्ययन की दृष्टि से भी यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है । सन् १६०१ ई० मे बंगाल एशियाटिक सोसायटी के सेक्रेटरी को पत्र लिखकर हरप्रसाद शास्त्री ने एक और महत्त्वपूर्ण पुस्तक का पता दिया था। यह है ज्योतिरीश्वर नामक भैथिल कवि-लिखित वर्णरत्नाकर, जिसमे नाना श्रेणी के मनुष्या, मानव-व्यापारों, सभाओ, उत्सव आदि के वर्णन करने के ढंग का उल्लेख है। प्राचीन मैथिली भाषा के अध्ययन की दृष्टि से तो यह पुस्तक अत्यन्त उत्तम है ही, परन्तु उस समय की सामाजिक रीति-नीति कान्य- ढि और काव्यरूपा के अध्ययन की दृष्टि से भी यह बहुत उपयोगी है | इस काल या इसके थोड़ा इधर-उधर के काल की लिखी हुई मुस्लिम-पूर्व हिन्दू-दरबार और भारतीय जीवन का परिचय देनेवाली पुस्तक नहीं मिलती। एक ओर यह 'मानसोल्लास' नामक पूर्ववर्ती सस्कृत-ग्रन्थ की श्रेणी में पड़ती है और दूसरी ओर परवर्ती फारसी ग्रन्थ 'आईने अकबरी' की कोटि मे श्राती है । सन् १९४० ई० मे डॉ. सुनीतिकुमार चटजी और पं० बबुना मिश्र के सम्मादकल मे यह पुस्तक एशियाटिक सोसायटी ऑफ बगाल से प्रकाशित हो चुकी है । सुनीति बाबू ने इसे संस्कृत के विश्वकोषात्मक ग्रन्थ 'मानसोल्लास' का समकक्ष ही बताया है । कहना व्यर्थ है कि हिन्दी के आदिकालीन साहित्य के विद्यार्थी के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है। ___ इधर भारतीय विद्यामन्दिर के सचालक मुनिजिनविजयी को एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व्याकरणग्रन्थ 'उक्तिव्यतिप्रकरण' मिला है। इससे बनारस और आसपास के प्रदेशों की संस्कृति और भाषा आदि पर बहुत अच्छा प्रकाश पड़ता है और उस युग के काव्य- रूपा के संबन्ध मे भी थोड़ा-बहुत प्रकाश पड़ जाता है-यह पुस्तक महाराज गोविन्दचन्द्र के सभा-पंडित दामोदर शर्मा की लिखी है। गोविन्दचन्द्र का राज्यकाल सन् ११५४ ई० तक था। श्रागे इस पुस्तक के विषय मे थोड़ा विस्तारपूर्वक आलोचना करने का अवसर हमे मिलेगा। यहाँ इसका उल्लेख इसलिए कर दिया गया कि तत्कालीन काव्य-रूपो के अध्ययन में यह पुस्तक भी थोड़ी सहायता पहुंचा सकती है। सन् १९३४ ई० में श्रीराम सिंह, श्रीसूर्यकरण पारीक और श्रीनरोत्तम स्वामी ने राजस्थानी साहित्य के श्रादिकाव्य 'ढोला मारुरा दूहा' का सम्पादन बहुत परिश्रमपूर्वक