पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/२०

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प्रथम व्याख्यान किया। यह पुस्तक काशी की नागरी-प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हुई । राजपूताने मे इम काव्य के कई रूप प्रचलित थे । सबसे पुराना रूप सभवतः ग्यारहवी-बारहवीं शताब्दी का रहा होगा। काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से इस पुस्तक का महत्त्व तो है ही, परवर्ती हिन्दी साहित्य के दोहाबद्ध काव्यों को समझने की दृष्टि से भी इस ग्रन्थ से सहायता मिलती है । इस पुस्तक को हेमचन्द्र के व्याकरण में प्राप्त दोहों और 'बिहारी सतसई के बीच की कडी समझा जा सकता है। यद्यपि यह गीति-काव्य के रूप में प्राप्त है और इसमे एक पूरी कथा है, तथापि यह मुक्तकों के संग्रह के साथ आसानी से तुलनीय हो सकता है । कथा के घुमाव के लिये दीर्घकाल से प्रचलित कथानक-रूढियों का उसी प्रकार आश्रय लिया गया है, जिस प्रकार हिन्दी के अन्य चरित-काव्यों में लिया गया है । ढोलामारू के दोहों के सम्पादकों ने ठीक ही कहा है कि "हिन्दी भाषा के आदिकाल की ओर दृष्टि डालने पर पता लगता है कि हिन्दी के वर्तमान स्वरूप के निर्माण के पूर्व गाथा और दोहा-साहित्य का उत्तर भारत की प्रायः सभी देशी भाषाओं में प्रचार था। उस समय की हिन्दी और राजस्थानी मे इतना रूपभेद नहीं हो गया था, जितना श्राजकल है। यदि यह कहा जाय कि वे एक ही थीं तो अत्युक्ति न होगी। उदाहरणो द्वारा यह कथन प्रमाणित किया जा सकता है।" लेकिन राजस्थान के साहित्य का सम्बन्ध सिर्फ हिन्दी से ही नहीं है, एक श्रोर उसका अविच्छेद्य सम्बन्ध हिन्दी-साहित्य से है तो दूसरी ओर इसका घनिष्ठ सम्बन्ध गुजराती से है । कभी-कभी एक ही रचना को एक विद्वान् पुरानी राजस्थानी कहता है तो दूसरा विद्वान् उसे 'जूती गुजराती' कह देता है। इस पुरानी राजस्थानी या जूनी गुजराती मे दोनों ही प्रदेशों की भापा के पूर्वरूप मिलते हैं और प्राकृत और अपभ्रश का रूप तो इनमे मिला ही रहता है। अनेक जैनकवियों ने इस प्रकार के साहित्य की रचना की है। श्रीमोतीलाल मेनारिया ने अपने 'राजस्थानी भापा और साहित्य' मै अनेक जैनलेखको का उल्लेख किया है।' १. कुछ महत्व के नाम ये हैं- धनपाल (सं० १०८१), जिनवल्लम सूरि (सं० ११६७), पल्ह (सं० ११७०), वादिदेव सूरि (सं० १९८४), वज्रसेन सूरि (सं. १२२५), शाबीमद्र सूरि (स० १२४१), नेमिचन्द्र मंडारी (सं० १२५६), श्रासगु (स० १२५७), धर्म (स० १२- ६६), शाहरयण और मसठ (सं० १२७८), विजयसेन सूरि (सं० १२४६), राम (सं० १२८९), सुमतिणि (स० १२९०), निनेश्वर सूरि (सं० १२०८-१३३१), अभयतिलक (सं० १३०७), लक्ष्मीतिलक (सं० १३११-१७), सोममूर्ति (सं० १२६०-१३३१), जिनपद्म सूरि (सं० १३०९-२२), विनयचन्द्रसूरि (सं० १३२५--५३), जगडु (स० १३३१), संग्राम सिंह (स० १३३६), पद्म (सं० १३५४), जयशेखर त्रि (१३६०-६२), प्रशातिलक सूरि (स. १३६३), पस्तिग (सं० १३६८), गुणाकर सूरि (सं० १३७३), फेरू (स० १३७६), धर्मकलश (स. १३७७), सारभूचि (सं० १३९०), जिनप्रम सूरि (सं० १३६०-९०), सोलण (१४ वीं शताब्दी), राजशेखर सूरि (सं० १४०५), जयानन्द सूरि (सं० १४१०), तरुणप्रम सूरि (सं० १४११), विनयप्रम (स० १४१२) जिनोदय सूरि (सं० १४१५), ज्ञानकत्लश (सं० १४१५), पृथ्वीचन्द (सं० १४२६), जिनरत्न सूरि (सं० १४३०), मेरुनन्दन (सं० १४३२), देवसुन्दर त्रि (सं० १४४०), साधुहंस (सं० १४५५)।