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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

१४ हिन्दी-साहित्य का आदिकाल इस प्रकार मेरे विचार से सभी धार्मिक पुस्तकों को साहित्य के इतिहास में त्याज्य हो नहीं मानना चाहिए। परन्तु जो पुस्तकें पीछे की रचना हो या नोटिस-मात्र हों, उनपर विचार ही क्या हो सकता है। शुक्लजी ने जिन पुस्तकों को प्रामाणिक रचना समझकर इस काल का नाम वीरगाथा-काल रखा था, उनमें सबसे पहली 'खुमान रासो' है, जिसके कवि का नाम है-दलपतिविजय । तीन खुम्माण राजाओं की चर्चा करने के पश्चात् शुक्लजी इस नतीजे पर पहुंचे थे कि दलपतिकवि द्वितीय खुम्माण (सबत् ८७० से ६०० विक्रम तक) का समसामयिक रहा होगा। यद्यपि प्रतापसिंह तक का वर्णन देखकर उन्होंने यह तो अनुमान कर ही लिया था कि इसका वर्तमान रूप 'विक्रम की सत्रहवी शताब्दी मे प्राप्त हुश्रा होगा', अर्थात् यह भी संदेहास्पद रचना है। शुक्लजी के मन मे यह विश्वास था कि इसका मूलरूप पुराना होगा; परन्तु इधर पता चला है कि दलपति वस्तुतः तपागच्छीय जैन साधु शान्तिविजय के शिष्य थे | श्रीअगरचंद नाहटा ने नागरी-प्रचारिणी पत्रिका मे इन्हें परवर्ती कवि सिद्ध किया है। इवर श्रीमोतीलाल मेनारिया ने अपनी नव-प्रकाशित पुस्तक 'राजस्थानी भाषा और साहित्य' (पृष्ठ ८७) मे लिखा है कि "हिन्दी के विद्वानों ने इनका मेवाड़ के रावल खुम्माण का समकालीन होना अनुमानित किया है, जो गलत है। वास्तव मे इनका रचनाकाल सवन् १७३० और १७६० के मध्य में है। इसी प्रकार नरपति नाल्ह के 'वीसलदेव रासो' के बारे में भी सन्देह प्रकट किया गया है। मैनारियाजी ने इन्हे १६वीं शताब्दी के कवि नरपति से अभिन्न माना है और दोनों नरपतियों की रचनात्रों की एकरूपता दिखाने के लिये उन्होंने जो उद्धरण दिए हैं, वे हंसकर उड़ा देने योग्य नहीं हैं। दो-एक उदाहरण यहाँ दिए जा रहे हैं- ब्रह्मा बेटी बीनवऊँ, सारद करूँ पसाई । हंस वाहन हरषि थिकी जिह्वा वसिजै माई ॥ वीणा पुस्तक धारिणी, तू तारणी त्रिभूवन | कविजन वारखी उच्चरइ,जुतूं हुई प्रसन्न ॥ कास्मीर पुर वासिनी, विद्या तणु निधान । सेवक कर जोड़े रहई आपद विद्या दान ॥ -पंचदंड कसमीरों पाटणह मॅझारि, सारदा तुठी ब्रह्म कुमारि । नाल्ह रसायण नर भणइ, हियडइ हरषि गायकइ भाइ ।। खेलॉ मेल्या मॉडली, बइस सभा माहि मोहेउ छइ राइ ॥६॥ सरसति सामणी तूं जग जीण, हंस चढी लटकावै वीण। उरि कमलॉ भमरों भमई कासमीरों सुख मंडणी माइ॥ तो तूठां पर प्रपिजइ, पाप छयासी जोयण जाइ ॥७॥ -वीसलदेव रासो मूसा वाहन चीनउ जेहनि मोदक आहार । एक दंत दालिद्र हरइ समरयों दातार ॥ -पंचदंड १. नागरी-प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष १४, अंक ४, पृष्ठ ३४१-३९४ । २. राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृष्ठ ८४ और ८९।