पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/२८

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प्रथम व्याख्यान 'गोविन्दचन्द्र' ने अपनी प्रशस्तियों में 'हम्मीरन्यस्तवैर मुहुरथ समरक्रीडया यो विधत्ते' कहा है अोर उसके पुत्र 'विजयचन्द्र' ने भी सन १९६८ ई. के एक दानपत्र मे गर्वपूर्वक घोषणा की है कि 'हम्मीर' अर्थात् गजनी के अमीर के त्रास से समूचा भुवन दुःख की ज्वाला से जल रहा था। उसे मैंने उसी की हरम की वेगमों के नयन रूपी मेषो की धारा से शान्त किया है- 'भुवन-दहन-लेहा-हये-हम्मीर-नारी-नयन-जलद-धारा-धौत-भूतोपतापः ।' सो, हम्मीर शब्द को किसी पद्य मे श्राया देखकर ही यह यही मान लिया जा सकता कि वह चित्तौरवाले या रणथमोरखाले हिन्दू राजा 'हम्मीर' की ओर ही इशारा कर रहा है। कर भी सकता है, नहीं भी कर सकता है। ____ भट्ट केदार ने जयचन्दप्रकाश नाम का एक महाकाव्य लिखा था, जिसमें महाराज जयचन्द्र के प्रताप और पराक्रम का विस्तृत वर्णन था। इसी प्रकार का 'लयमयंक जस- चन्द्रिका' नामक एक बड़ा प्रथ अाज उपलब्ध नहीं है। केवल इनका उल्लेख सिंघायच दयालदास-कृत राठौडा री ख्यान' में मिलता है, जो बीकानेर के राजपुस्तक-भण्डार मे सुरक्षित है।" (पृ०५०), अर्थात् ये दोनों भी नोटिस-मात्र है। इन दोनो कवियों के विषय मे कुछ अधिक चर्चा हम आगेवाले व्याख्यान मे करेंगे। यहाँ इतना कह रखना ही उचित जान पड़ता है कि इनकी चर्चा रासो मे भी मिलती है और हिन्दी की अन्य पुस्तकों मे भी कुछ चर्चा मिल जाती है। ये गोरी के दरबार के कवि बताए गए हैं। इसी प्रकार "जगनिक के काव्य का अाज कहीं पता नहीं है, पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिन्दी- भाषा-भाषी प्रान्तो के गॉव-गॉव मे प्रचलित सुनाई पड़ते हैं। (पृ० ५१) सो यह भी नोटिस- मात्र से कुछ अधिक दाम का नहीं। चदयरदाई का 'पृथ्वीराज रासो' भी अपने मूल रूप में प्राप्त नहीं हो रहा है। इसके विषय में विस्तार से हम फिर विचार करेगे | अब यह स्पष्ट है कि जिन ग्रंथों के आधार पर इस काल का नाम बीरगाथाकाल रखा गया है, उनमे से कुछ नोटिस मात्र से बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं और कुछ या तो पीछे की रचनाएँ है या पहले की रचनाओं के विकृत रूप हैं । इन पुस्तकों को गलती से प्राचीन मान लिया गया है। राजस्थानी साहित्य के विद्वान् विवेचक श्रीमोतीलाल मैनारिया ने कुछ मझलाकर लिखा है कि "इन ग्रंथों को प्राचीन बतलाते समय एक दलील यह दी जाती है, कि इनके रचयितात्रों ने इनमे सर्वत्र वर्तमानकालिक क्रिया का प्रयोग किया है, और इससे उनका अपने चरित्र नायकों का समकालीन होना सिद्ध होता है | परन्तु यह भी एक भ्रान्ति है । यह कोई आवश्यक बात नहीं, कि वर्तमानकालिक क्रिया का प्रयोग करनेवाले कवि समसामयिक ही हो। यह तो काव्य-रचना की एक शैली मात्र है। काव्य मे वर्णित घटनाओ को सत्य १. यद्यपि जगनिक के विषय मे निश्चित रूप से कहना कठिन है तथापि अनुमान से समझा जा सकता है कि इस कवि ने यदि 'पाल्हाखंड' की रचना कभी की मी हो तो वह रचना बुन्देलखंड की सीमा के बाहर बहुत दीर्घ काल तक अपरिचित रही। यह देखकर थोड़ा आश्चर्य ही होता है कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने इस अत्यन्त लोकप्रिय गीतपद्धति को राम- मय करने का प्रयास क्यो नहीं किया। लेकिन यह नकारात्मक दलीन हमें बहुत दूर तक नहीं ले जा सकती।