पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/३०

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प्रथम व्याख्यान (अब यह सिंघी जैन ग्रथमाला मे प्रकाशित हो गया है।) डॉ. मोतीचंद ने 'सम्पूर्णानंद- अभिनन्दन-प्रन्य' में एक लेख लिखकर बताया है कि इस पुस्तक में तत्कालीन काशी की भाषा का रूप पाया जाता है । 'वेद पढ़ब,स्मृति अभ्यासिब, पुराण देखब, धर्म करब', यह बारहवीं शताब्दी की बनारसी भाषा का नमूना है। स्पष्ट ही इस वाक्य मे तत्सम शब्दों का प्रयोग है । इसी प्रकार 'छात्रु गाऊँ या' मे छात्र शब्द किसी अपभ्रंश पुस्तक की भाषा के समान 'छत्तु' नहीं बन गया है और, 'मेरा क्षेम को करिह' मे क्षेम विशुद्ध तत्सम रूप में है। 'विद्या अवढ' मे विद्या और 'प्रज्ञा' मे प्रज्ञा तत्सम रूप मे ही व्यवहृत हुए है। इस पुस्तक से और भी बहुत-सी यातों का पता चलता है। महत्त्वपूर्ण और जानने योग्य बात यही है कि उस समय इस भाषा मे कथा-कहानी का साहित्य रचित होने लगा था। इसके बाद तत्सम शब्दों के निश्चित प्रयोग का प्रमाण 'ज्योतिरीश्वर' के वर्णरत्नाकर और विद्यापति की कीर्तिलता मे मिलता है । दोनो ही पुस्तकें मिथिला में लिखी गई थीं। विद्यापति पद्य मे तो अपभ्रश के समान तद्भव रूपो का व्यवहार करते हैं-यद्यपि जैन लेखकों की तरह वे संस्कृत का सम्पूर्ण बहिष्कार नहीं करते हैं पर जब गद्य लिखने लगते हैं तो उनकी भाषा में तत्सम शब्दों की भरमार हो जाती है। सभवतः यह बात इस वथ्य की ओर इगित करती है कि पद्य की भाषा मे तो थोड़ा-बहुत पुरानापन तब भी बना हुना था, पर बोलचाल के गद्य में तत्सम शब्दों का प्राचुर्य बढ रहा था। विद्यापति की पदावली मे तो तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुत है, परन्तु उसकी भाषा बहुत बदलती रही है। अतएव उसके बारे में कुछ निश्चित रूप से नही कहा जा सकता। ज्योतिरीश्वर की पूरी पुस्तक ही गद्य में है, बल्कि यह कहिए कि शब्दों की सूची-मात्र है। उसमे संस्कृत शब्दों के तत्सम रूपों का प्रयोग यही सूचित करता है कि बोलचाल की मापा में तत्सम शब्दों का प्रयोग बढ़ने लगा था। सयोगवश तत्सम शब्दों के प्रचलन के प्रमाण के रूप मे जिन तीन पुस्तकों के प्रमाण का उल्लेख किया गया है, वे सभी संस्कृताभ्यासी ब्राह्मण-पंडितो की रचनाएँ हैं और तीनों ही पूर्वी प्रदेश मे लिखी गई हैं। आलोच्य काल मे काशी और मिथिला संस्कृत विद्या के गढ रहे हैं। इसलिये कोई चाहे तो कह सकता है कि यह ब्राह्मणों की और पूर्वी प्रदेश की विशेषता थी। ज्ञान की वर्तमान अवस्था मे इस अनुमान का प्रत्याख्यान करने योग्य अधिक प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। श्रीअगरचन्दजी नाहटा ने 'जर्नल आफ दि यू०पी० हिस्टारिकल सोसाइटी' के बारहवे जिल्द मे 'तरुणप्रभसूरि' नामक चौदहवीं शती के जैन विद्वान् की एक गद्य-रचना 'दशाभद्रकया' की सूचना प्रकाशित कराई है। इसकी भाषा मे तत्सम शब्दों की उसी प्रकार भरमार है, जिस प्रकार कीर्तिलता के गद्य मे है। कल्पना-शक्ति को कुछ और बल देकर निश्चय के साथ ही यह कहा जा सकता है कि उन दिनो तत्सम शब्दों का प्रयोग बढ़ने लगा था । नवीं शताब्दी की कुवलयमाला-कथा मे कुछ ऐसे प्रसंग हैं, जिनमे बोलचाल की तत्काल- प्रचलित भाषा के सुन्दर नमूने श्रा गए हैं। उनमे थोड़ा पढ़ाई-लिखाई के वातावरण में रहनेवाले वटुकों की भाषा इस प्रकार है- _ 'भो भो भट्टउत्ता ! तुम्हे ण याणह यो राजकुले वृत्तांत ? तेहिं भरिणय-भण हे व्याघ्र स्वामि ! क वार्ता राजकुले १