पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/३२

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प्रथम व्याख्यान • २१ दूसरे ने कहा-अरे कौन-सा तेरा पाण्डित्य है ? उसने कहा-(क्यों १) मै षडग (वेद) पढ़ता हूँ, त्रिगुण मन्त्र पढता हूँ, पाण्डित्य क्यों नहीं है ? दूसरे ने कहा-अरे त्रिगुण मन्त्र से ब्याह नहीं होगा। जो दोनों पातों (पत्रों) को एक साथ समझ सकेगा, उससे वह (कुवलयमाला) ब्याह करेगी। दूसरे ने कहा-मै साथ-साथ दो ग्वाथियों पढता हूँ। उन्होंने कहा-कैसी है रे व्याघ्रस्वामी, वे गाथाएँ ? उसने कहा-यह गाथा । 'सा ते । 'मधुसूदनः यह सुनकर दूसरे ने क्रोध-सहित कहा-अरे रे मूर्ख ! तू स्कंधक को गाथा कहता है । हम गाथा नहीं पूछते । उन्होंने कहा-तुम पढ़ो भट्ट यजुस्वामी गाथा-- उसने कहा-बहुत अच्छा, पढ़ता हूँ- 'श्राए कापे .'वात्त। दूसरे ने कहा-अवे, हम श्लोक नहीं पूछते, ग्वाथी पढ । उसने कहा-बहुत अच्छा पढता हूँ- 'नवोल · णिवारेइ ।' तब सबने कहा-अहो ! भट्ट यजुस्वामी विदग्ध पडित है, विद्यावन्त है, ग्वाथी पढता है, इसी से वह व्याही जाएगी। दूसरे ने कहा-अरे कैसा वह पत्र है, जो उसने लगा रखा है ? उसने कहा-राजागण मे मैंने पढा था, वह अब भूल गया क्योंकि उसे सब लोग पढते हैं। इस चट्ट-रसायन को सुनकर राजपुत्र ने सोचा--अहो ? असम्बद्ध प्रलापी छात्रों (चट्टो) का यह कैसे अन्यथा बर्ताव है ?] __ स्पष्ट ही इसमे तत्सम शब्दों का बाहुल्य है । बाहुल्य का कारण सस्कृत-पाठशाला का वातावरण है। इसी पुस्तक में एक अनाथालय के कोढ़ियों, अपाहिजों आदि की भाषा का भी नमूना है। यह अनाथालय मथुरा में था ! अनुमान किया जा सकता है कि इस बातचीत मे स्थानीय भाषा का रूप रहा होगा। संस्कृत के कठिन तत्सम शब्दों का न रहना स्वाभाविक है। फिर भी इसमें प्रयाग, खेद श्रादि शब्द प्रायः तत्सम रूप में ही आए हैं। यह ध्यान देने की बात है कि 'अच्छई', 'आई आदि के जो प्रयोग बारहवीं शताब्दी की भाषा (युक्तिव्यक्तिप्रकरण) मे मिल जाते हैं. वे करीब-करीब यहाँ भी हैं। इस प्रकार नवीं शताब्दी में ही बोलचाल की भाषा मे तत्सम शब्द थाने लगे थे । जो लोग बातचीत में कुछ इस प्रकार का आभास देना चाहते थे कि वे पढ़े-लिखे हैं, वे निस्सकोच सस्कृत-शब्दों का प्रयोग किया करते थे। परन्तु साधारण जनता की बोलचाल की भाषा मे सस्कृत-शब्दो का व्यवहार उमी स्वाभाविकता के साथ होता जान पड़ता है, जैसा बाद की