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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी-साहित्य का आदिकाल बोलियों में होता रहा। धीरे-धीरे संस्कृत के तत्सम शब्द अधिकाधिक मात्रा में श्राने लगे। सो, इस काल की भाषा की मुख्य प्रवृत्ति यी-बोलचाल में तत्सम शब्दों का प्रचार ! स्वर्गीय पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने बताया है कि "विक्रम की सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक अपभ्रश की प्रधानता रही और फिर वह पुरानी हिन्दी में परिणत हो गई। इसमे देशी की प्रधानता है, विमक्तियों घिस गई हैं। खिर गई हैं। एक ही विभक्ति 'हे' या 'आहे' कई काम देने लगी है । वैदिक भाषा की अविभक्तिक निर्देश की विरासत भी इसे मिली। विभक्तियों के खिर जाने से कई अव्यय या पद लुप्त-विभक्तिक पद के आगे रखे जाने लगे, जो विभक्तियों नहीं हैं। क्रियापदों में मार्जन हुअा। हॉ, इसने केवल प्राकृत ही के तद्भव और तत्सम पद नहीं लिए; किन्तु धनवती अपुत्रा मौसी (संस्कृत) से भी कई तत्सम पद लिए। अपभ्रंश साहित्य की भाषा हो चली थी। वहाँ गत भी गय और गन भी गय । काच, काक, काय, कार्य सबके लिये काय । इसमे भाषा के प्रधान लक्षण-सुनने से अर्थ- बोध-का व्याघात होता था। अपभ्रंश मे दोनों प्रकार के शब्द मिलते है। जैन लोग संस्कृत-शब्दों का बहिष्कार अवश्य करते रहे, पर वे आते ही गए। चंद का रासो अपने मूल रूप में सुरक्षित नहीं रह सका है। इसमें बहुत प्रक्षेप हुआ है। फिर भी इसके वर्तमान रूप से (जो सत्रहवीं शताब्दी के आस-पास का है) अनुमान किया जा सकता है कि इसमे संस्कृत की ओर जाने की प्रवृत्ति है । तद्भव शब्दों मे अनुस्वार लगाकर संस्कृत की छौंक देना तत्कालीन भाषा के नये घुमाव की सूचना देता है। परन्तु इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता । सूरदास, तुलसीदास, विहारी आदि परवर्ती कवियों की भाषा मे निश्चित रूप से तत्सम शब्दों का श्रवाध प्रवेश होने लगा था; परन्तु उनके प्रयोगों का अध्ययन करने से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि तत्सम शब्दों का प्रयोग नये सिरे से होने लगा है। 'विधुवनी में 'वैनी' परम्परा प्राप्त शब्द है और चंद्रवदन' मे वदनि नये घुमाव की सूचना देता है। 'लोयन कोयन' मे 'लोयन' पुरानी स्मृति का चिह्न है और 'सोचविमोचन लोचन' में 'लोचन' नये प्रमाव का द्योतक है। 'मैन-सर में 'मैन' पुरानी विरासत है और 'मदनमोहन' में मदन नया अतिथि है। स्पष्ट ही दसवीं से तेरहवीं शताब्दी तक की बोलचाल की भाषा में संस्कृत-तत्सम शब्दों का प्रयोग बढने लगा था। इन कुछ शताब्दियों मे अपभ्रंश से मिलती-जुलती भाषा पद्य का वाहन बनी रही और गद्य की भाषा तत्सम-बहुल होती गई। कीर्तिलता मे इसकी स्पष्ट सूचना मिलती है। धीरे-धीरे तत्सम शब्दों और उनके नये तद्भव रूपों के कारण भाषा बदली-सी जान पड़ने लगी और चौद- हवीं शताब्दी के बाद वह वदल ही गई । इसके पूर्व अपभ्रश और देश्य-मिश्रित अपभ्रंश की प्रधानता बनी रही। इस प्रकार दसवी से चौदहवीं शताब्दी का काल, जिसे हिन्दी का श्रादिकाल कहते हैं; भाषा की दृष्टि से अपनंश का ही बढ़ाव है। इसी अपनंश के बढ़ाव को कुछ लोग उत्तरकालीन अपभ्रंश कहते हैं और कुछ लोग पुरानी हिन्दी। इस पुरानी हिन्दी के कुछ पुराने नमूने शिलालेखों मे मिल जाते है । बारहवीं शताब्दी तक निश्चित रूप से अपभ्रंश भाषा ही पुरानी हिन्दी के रूप में चलती थी, यद्यपि उसमे नये तत्सम शब्दों का श्रागमन शुरू हो गया था। गद्य और बोलचाल की भाषा में तत्सम शब्द मूल रूप गे रखे जाने थे; पर पद्म लिखते समय उन्हें तद्भव बनाने का प्रयत्न किया जाता था।