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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का आदिकाल डॉक्टर धीरेन्द्र वर्मा ने इस काल की भाषा पर विचार करते हुए कहा है हिंदी भाषा का इतिहास-भूमिका, पृष्ठ ७७) कि 'पडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने नागरी-प्रचारिणी पत्रिका, भाग २, अंक ४ मे 'पुरानी हिन्दी शीर्षक लेख मे जो नमूने दिए हैं, वे प्रायः गंगा की घाटी के बाहर के प्रदेशों में बने ग्रन्थों के हैं। अतः इनमे हिंदी के प्राचीन रूपों का कम पाया जाना स्वाभाविक है। अधिकाश उदाहरणो मे प्राचीन राजस्थानी के नमूने मिलते हैं। इसके अतिरिक्त इन उदाहरणों की भाषा मे अपभ्रश का प्रभाव इतना अधिक है कि इन अन्थों को इस काल के अपभ्रश-साहित्य के अंतर्गत रखना ही अधिक उचित मालूम पड़ता है।" वस्तुतः १४वीं शताब्दी के पहले की भाषा का रूप हिंदी-भापी प्रदेशों मे क्या और कैसा था, इसका निर्णय करने योग्य साहित्य आज उपलब्ध नहीं हो रहा है। कुछ अधिक प्रामाणिक प्राचीन हस्तलिखित ग्रथ और शिलालेख श्रादि से ही उस भाषा का परिचय मिल सकता है। दुर्भाग्यवश इस काल का ऐसा साहित्य उपलब्ध नहीं है। जो एकाध शिलालेख और अथ (जैसे, युक्तिव्यक्तिप्रकरण) मिल जाते हैं, वे बताते है कि यद्यपि गद्य की और बोलचाल की भाषा मे तत्सम शब्दों का प्रचार बढ़ने लगा था, पर पद्य मे अपभ्रंश का ही प्राधान्य था । इसलिये इस काल को अपभ्रश-काल का बढ़ाव कहना उचित ही है। विषय-वस्तु को दृष्टि मे रखकर इस काल के लिये राहुल जी ने एक और नाम सुझाया है जो बहुत दूर तक तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है । यह नाम है- 'सिद्ध- सामन्त-काल'। इस काल का जो भी साहित्य मिलता है, उसमे सिद्धों का लिखा धार्मिक साहित्य ही प्रधान है। यद्यपि यह साहित्य विशुद्ध काव्य की कोटि मे नहीं आ सकता, पर नाना प्रकार की सिद्धियाँ इस काव्य मे उसी प्रकार प्रेरणा का विषय रहीं, जिस प्रकार परवर्ती काल मे भक्ति । वस्तुतः काल-प्रवृत्ति का निर्णय प्राप्य प्रयो की संख्या द्वारा नहीं हो सकता, बल्कि उस काल की मुख्य प्रेरणादायक वस्तु के आधार पर ही हो सकता है । प्रभाव-उत्पादक और प्रेरणा-संचारक तत्त्व ही साहित्यिक काल के नामकरण का उपयुक्त निर्णायक हो सकता है। फिर 'सामन्त-काल' में 'सामन्त' शब्द से उस युग की राजनीतिक स्थिति का पता चलता है और अधिकाश चारण-जाति के कवियों की राजस्तुतिपरक रचनाओं के प्रेरणास्रोत का भी पता चलता है। 'सामन्त' जिस काव्य का प्रधान आश्रयदाता है, उसमे उसकी भूठी-सच्ची विजयगाथाओं और कल्पित-अकल्पित प्रेम-प्रसगी का होना उचित ही है। एक के द्वारा वह वीर रस का आनय बनता है, दूसरे के द्वारा शृगार रस का आलंबन । सामन्त को दोनों ही चाहिए । इस प्रकार इस शब्द में इसकाल की मुख्य प्रवृत्तियों को स्पष्ट करने का गुण है । 'प्राकृतपैङ्गलम्' मे उदाहरण रूप में उद्धृत पद्यो मे इस प्रकार की राजस्तुतिमूलक रचनाएँ प्रचुर मात्रा में है और तत्कालीन संस्कृत- काव्य में इस श्रेणी की रचनाएँ बहुत अधिक हुई हैं। सो, यह राजस्तुतिपरक रचनाएँ 'वीरगाथा' उतनी नहीं है, जितनी राजस्तुति है । उनकी लडाइयों और विवाहों की कथाओं में कल्पना अधिक है, तथ्य कम। ___ यद्यपि हमने अपन श की अनेक रचनाओ की चर्चा की है और हमारा मत है कि ये रचनाएँ श्रादिकालीन हिन्दी-साहित्य के काव्य-रूपों के अनुमान में सहायक है, परन्तु यह सत्य है कि जिन प्रदेशो में श्रागे चलकर व्रजमापा, अवधी और खड़ी बोली का साहित्य