पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय व्याख्यान 00 अपने प्रथम व्याख्यान में मैंने अपभ्रंश के उपलब्ध साहित्य की चर्चा की है। स्पष्ट ही हमारे बालोच्य काल के प्रारम्भ मे इस भाषा का बहुत ही विशाल साहित्य वर्नमान था। साधारणतः दसवीं से चौदहवीं शताब्दी के काल को हिन्दी-साहित्य का आदिकाल माना जाता है। स्वर्गीय आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल ने संवत् १०५० से १३७५ तक के काल को इस काल की सीमा मानी थी | जबतक इस विशाल उपलब्ध साहित्य को सामने रखकर इस काल के काव्य की परीक्षा नहीं की जाती तबतक हम इस साहित्य का ठीक-ठीक मर्म उपलब्ध नहीं कर सकते। केवल संयोगवश इधर-उधर से उपलब्ध प्रमाणों के बल पर किसी बात को अमुक का प्रभाव और किसी को अमुक ऐतिहासिक घटना की प्रतिक्रिया कहकर व्याख्या कर देना न तो बहुत उचित है और न बहुत हितकर। हमने बताया है कि इस बात का निर्णय करना कठिन है कि अवधी और व्रजभाषा- क्षेत्र मे उत्पन्न और वही की भाषा बोलनेवाले लोगों ने किस प्रकार के साहित्य की रचना की थी, जिसका परवत्तौ विकास अवधी और ब्रजभाषा के साहित्यिक ग्रन्थ हैं, क्योंकि १०वी से १४वी शताब्दी के भीतर इन क्षेत्रों मे कोई रचना हुई भी हो तो उसका प्रामाणिक रूप हमे प्राप्त नहीं। हमे पाश्ववर्ती प्रदेशों से प्रास साहित्यिक सामग्री के आधार पर तथा पूर्ववत्ती और परवती रचनात्रों के काव्य-रूपों को देखकर अनुमान द्वारा उस साहित्य-रूप का अन्दाजा लगाना पड़ता है। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि यह अन्दाजा यथासम्भव ठीक हो। यह नहीं समझना चाहिए कि केवल हिन्दी का साहित्य ही इस काल में इस प्रकार के दुर्भाग्य का शिकार बना। केवल गुजराती और राजस्थानी इस विषय मे कुछ अधिक सौभाग्यशालिनी हैं, नहीं तो लगभग सभी प्रान्तीय साहित्यों की यही कहानी है। जबतक प्रत्येक प्रदेश से प्राप्त सामग्री का व्यापक अध्ययन नहीं किया जाता तबतक सभी प्रान्तीय भाषाओं के साहित्यिक रूप अस्पष्ट ही बने रहेंगे। इसीलिये इस काल के साहित्य-रूप के अध्ययन के लिये प्रत्येक श्रेणी की पुस्तक का कुछ-न-कुछ उपयोग है। पुस्तक चाहे धर्मोपदेश की हो, वैद्यक की हो, माहात्म्य की हो, वह कुछ-न-कुछ साहित्य-रूप को स्पष्ट करने में अवश्य सहायता पहुंचाएगी। इस काल मे साहित्यिक क्षेत्र को यथासम्भव व्यापक बनाकर देखना चाहिए। यहाँ तक की इस काल में उत्पन्न महात्माओं और कवियों के नाम पर चलनेवाली और परवर्ती काल में निरन्तर प्रक्षेप से