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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का आदिकाल पश्चिम के प्रतीहार इस राजलक्ष्मी को अपनी गृहलक्ष्मी बनाने का प्रयत्न करते रहे । परनवीं शताब्दी के प्रारंभ में प्रतीहारों को ही कान्यकुब्ज को अधिकार करने का गौरव प्राप्त हुना। इसके बाद लगभग दो सौ वर्षों तक कान्यकुब्ज के प्रतीहार बड़े शक्तिशाली शासक रहे । मारतवर्ष की केन्द्रीय शक्ति उन्हीं के हाथों रही। __सन् १०१८ ई० मे राज्यपाल महमूद से पराजित हुश्रा और उसने महमूद की अधीनता स्वीकार कर ली । ऐसा विश्वास किया जाता है कि राजपूत राजाओं को उसका यह पाचरण अच्छा नहीं लगा और कई राजाओं ने मिलकर उसे मार डाला तथा उसके पुत्र को गद्दीपर बैठा दिया । परन्तु प्रतीहारों का प्रताप-सूर्य अस्त हो गया। इसी समय कालिंजर के प्रतापी चन्देल, त्रिपुरी के कलचुरि और साभर के चौहान स्वतत्र हो गये। ये परस्पर भी जूझते रहे और उत्तर-पश्चिम की ओर से होनेवाले अाक्रमणों से भी टकर लेते रहे। त्रिपुरी (नेवार) के कलचुरियों में कर्ण नामक प्रवल प्रतापी राजा हुआ, जो सभवतः सन् १०३८ से १०८० ई. तक राज्य करता रहा । इसने दक्षिण मे चोल-पाड्यों तक को जीत लिया और उत्तर में काशी, चम्पारण (चंपारन) और अवध तक को अपने मे मिला लिया। अनुमान किया जाता है कि सरयू पार के प्रसिद्ध तिवारी ब्राह्मण इस राजा के साथ ही इधर आए थे। कर्ण का राज्य बहुत दिनों तक स्थायी नहीं रह सका। उसने काशी को अपनी राजधानी बनाने का संकल्प किया था; पर उसका संकल्प मन ही मे रह गया; क्योकि सन् १०८० ई० में मध्यदेश मे एक नई शक्ति का उदय हुना। काशी और कान्यकुब्ज में गाहड़वार-वंशीय राजा चंद्र का प्रताप प्रतिष्ठित सभा। इस काल में केन्द्रीय शक्ति के शिथिल होने के कारण उत्तर भारत मे घोर अराजकता फैल गई थी। चंद्रदेव ने समस्त उपद्रवो को शान्त करके राज्य में सुव्यवस्था कायम की | गाहड़वार-वंश के लेखों मे बड़े गर्व के साथ चन्द्रदेव के इम महान् कार्य को स्मरण किया गया है- 'येनोदारतरप्रतापशमिताशेषप्रजोपद्रवम् ! प्रजा ने भी इस वंश के राजाओं को सिर-माथे लिया। इस प्रकार लगभग दो सौ वर्षों तक कन्नौज, काशी, अवध तथा पश्चिमी और उत्तरी बिहार- लगभग समूचा मध्यदेश या हिंदीभाषी प्रदेश-गाहड़वार राजाओं के हाथ रहा। इस वंश के सबसे प्रतापशाली राजा गोविंदचंद्र थे, जिन्हें एक तरफ बंगाल के प्रबल शासक पालों से लोहा लेना पड़ता था और दूसरी तरफ पश्चिम की ओर से निरन्तर हमला करनेवाले मुसलमानों से टक्कर लेना पड़ता था। जिस काल के साहित्य की चर्चा हम कर रहे है, उस काल का मध्यदेश बहुव अधिक विक्षुब्ध था । यदि उस समय का कोई साहित्य नहीं मिलता तो बहुत आश्चर्य की बात नहीं है। हमने पहले ही विचार किया है कि साहित्य के रक्षित रहने के तीन साधनों मे से सबसे प्रवल और प्रमुख साधन है-राज्याश्रय । गाहड़वार राजाओं के विषय में कई प्रकार के विश्वास विद्वानों में प्रचलित है। कुछ लोग उन्हें दक्षिण से आया हुआ बताते हैं और कुछ लोग पश्चिम से । इतना प्रायः निश्चित है कि ये लोग बाहर से आये थे और बाहर से आनेवाले अन्य लोगों की भाँति वे भी स्थानीय जनता से अपने को मिन्न समझते रहे और अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयास भी करते रहे। बहुत दिनों तक इस दरबार में देशी भापा के साहित्य को कोई प्रश्नय नहीं मिला । वे लोग वैदिक रंस्कृति के उपासक थे और