पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३०
हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

३० हिन्दी-साहित्य का आदिकाल जरी नयन विदायु केला वेणी दण्ड । तरी साक्षाजाला भ्रमर श्रेणी दण्ड्ड । जरी दृग्गोचरी आला विशाल भालु । तरी अर्द्धचन्द्र मण्डल भइल उर्घायु जालु । भ्रजुगलु जाणू द्वैधीकृत कंदर्प चापु । नयेन निर्जित 'सुजला खंजन निःप्रतापु । मुखमण्डलु जाणू शशांक देवताचे मण्डलु ।। सर्वाङ्ग सुन्दर मूर्तिमन्त कामु । कल्पद्रुम जैसे सुन्दर सर्वलोक आशा विश्राम ॥ बताया गया है कि ये पद्य मराठी भाषा में हैं और इनका 'रभामंजरी' नाटिका मे होना इस बात का सबूत है कि जयचन्द्र के दरबार के वैतालिक मराठी भाषा मे गान करते थे और इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि जयचन्द्र के पूर्वपुरुष दक्षिण से किसी मराठी-भाषी क्षेत्र से आये थे। लेकिन यह युक्ति भी केवल ऊपर-ऊपर से ही वजनदार मालूम होती है । प्रथम तो यह नाटिका जयचन्द्र से दो सौ वर्ष बाद लिखी गई थी और इसमे कयि की कल्पना का अधिक हाथ है, ऐतिहासिक तथ्य का कम । हो सकता है कि जयचन्द्र स्वयं मराठी-भाषी हों और देशी भाषा मे कुछ लिखने की इच्छा होते ही उन्हें अपनी मातृभाषा सूझी हो। दूसरे, यह भाषा शुद्ध मराठी नहीं है, बल्कि तत्काल प्रचलित काशी की भोजपुरी का मराठी कवि द्वारा सुना हुअा रूप है। 'पेखिला', 'महल', 'जाण', 'जैसे श्रादि प्रयोग भोजपुरी भाषा के है। मैंने मूल हस्तलिखित प्रति नहीं देखी, इसलिये इस पाठ के बारे में कुछ निश्चय के साथ नहीं कह सकता, परन्तु मुझे लगता है कि लेखकों और पाठकों की असावधानी से यह कुछ विकृत रूप मे लिखा गया है। 'मयूरा चे' और 'देवता चे जैसे पद इसमे मराठी की गवाही देते हैं। वस्तुतः यह पद किसी मराठी-भाषी कवि का भोजपुरी मे लिखने का प्रयास है।' इससे अधिक कुछ भी इससे सूचित नहीं होता। दामोदर मट्ट के 'युक्तियक्तिप्रकरण' को चर्चा प्रथम व्याख्यान में की जा चुकी है। ये प्रसिद्ध गाहडबार राजा गोविन्दचन्द्र के समा-पण्डित थे। ऐसा अनुमान किया गया है कि १. सन्१९५६ ई० की मई मास की मराठी पत्रिका 'सह्यादि में श्री ग. ह. खैर ने 'रम्मामारी तील एक उतारा' शीर्षक एक खेल लिखा है। उसमें उन्होने लिखा है कि मैंने रम्भामाजरी को अप्रकाशित नाटिका कहा है। मैंने ठीक ऐसा ही तो नहीं कहा; परन्तु यह सत्य है कि मुझे मालूम नही था कि सन् १८८९ ई० में बम्बई से श्रीरंगनाथ दीनानाथ शास्त्री और श्रीकेवलदास ने इस पुस्तक को प्रकाशित कराया था। मैं इस सूचना के लिये श्री खेर का कृतज्ञ हूँ। श्री खेर का मत है कि इस पद्य की माषा मराठी ही है, भोजपुरी नहीं और जैत्रचन्द्र जयचंद्र नहीं है। दूसरी बात के बारे में पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह के 'जैत्रचन्द्र-प्रबन्ध' के आधार पर कहा जा सकता है कि जैत्रचन्द्र ही जयचन्न हैं। जहाँ तक भाषा का प्रश्न है, मैं भी मानता हूँ कि यह पक्ष मराठी-भाषी कवि की रचना है। परन्तु उस कवि ने भोजपुरी - का कुछ मिश्रण किया है। ऐसी मेरी धारणा है।