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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी-साहित्य का आदिकान ऐसे उदार और सरल दानवीर की महिमा बखानने के लिये कवियों की भाषा यदि मुखर हो उठी तो इसमे आश्चर्य करने की बात नहीं है। बीसलदेव का विरुद जगहू के दान पर अवलंबित था- बीसल दे विरुभं करइ जगड्ड कहावइ जी । तुउ परीलइ फालिसउ एउ परीसइ थी। किसी कवि या याचक की उक्ति है कि बीसलदेव तो केवल विरुद धारण करता है या यश कमाता है और जगडू से 'जी' कहवाता है। किन्तु है बीसलदेव, तुम तो रूखी (फालिस = परुष) परसते हो और वह घी परसता है !] ___ इस प्रकार के अजमेर मे आगे चलकर चंद वरदाई-जैसे महाकवि का होना उचित ही है। समुद्र मे ही कौस्तुभमणि के उत्पन्न होने की संभावना सोची जा सकती है। ___ इसी प्रकार कालिजर के चंदेलों का वंश बहुत काल से बुन्देलखंड में राज्य कर रहा था। इन चंदेल्लों ने अपनी प्रशस्तियों में अपने को चन्द्रात्रेय गोत्र का कहा है। पंडितों में इस गोत्र को लेकर भी थोड़ा चखचख है। कुछ लोग कहते हैं कि चंद्रोत्रेय शब्द 'चदेल्ल' शब्द के श्राधार पर बना ली गई परवर्ती कल्पना है। मुझे ऐसा लगता है कि यह शब्द वस्तुतः पुरोहित के गोत्रनाम का अपभ्रंशरूप है | अनुमान किया जा सकता है कि इन क्षत्रियों के पुरोहित वही शाण्डिल्यगोत्री ब्राह्मण थे, जिन्हें कमी कर्ण के साथ सरयू पार पाना पड़ा था और इस शाण्डिल्य का ही अपभ्रंश रूप चंदेल्ल' है। बाद में इसका मूल अर्थभुला दिया गया और चंदेल्ल का संस्कृत रूप उसी प्रकार 'चन्द्रात्रेय बना लिया गया, जिस प्रकार 'त्रिपुर' या 'तेवार' के रहनेवाले तिवारी ब्राह्मणों ने तिवारी शब्द को त्रिपाठी के रूप में संस्कृत बनाया । इन राजाओं के दरबार मे भी भाषाकवि का मान था। इनका सबसे अन्तिम प्रतापी राजा परमर्दी या परमाल था जिसने ११६५ से १२०३ ई. तक राज्य किया । इसीके दरबार मै बणाफर कुल के प्रसिद्ध वीर आल्हा और ऊदल थे। पृथ्वीराज से परमर्दी का युद्ध हुआ था जिसका वर्णन जगनिक के महोबाखण्ड में हुआ है । इसमें परमर्दी हार गया और आल्हा-ऊदल काम आए । पृथ्वीराज ने महोबे में अपने प्रसिद्ध सरदार पज्जन को रखा । पृथ्वीराज का एक लेख मदनपुर में प्राप्त हुश्रा है जिससे इस घटना की ऐतिहा- सिकता प्रामाणित होती है। लेकिन इस युद्ध में हारने के बाद भी परमर्दी जीवित था और शक्तिशाली भी बना रहा । सन् १२०३ ई० मे वह कुतुबुद्दीन से लड़ा था। पृथ्वीराज से उसकी लड़ाई ११८२ ई० में हुई थी। उस समय इस महाप्रतापी राजा का बल टूट गया होगा और वह श्रासानी से भागे चलकर मुसलमानों के हाथ पराजित हो सका होगा। इन बीस वर्षों के भीतर ही कभी जगनिक का वह भोजपूर्ण काव्य लिखा गया होगा जो बहुत दिनों तक आल्हा और ऊदल की स्मृति में लोककंठ में जीता रहा और बहुत दिनो तक अपने क्षेत्र में ही सीमित बना रहा। फिर कई सौ वर्ष बाद अत्यन्त परिवर्तित रूप मे लिखवाया गया। यह स्वाभाविक भी था। क्योकि जब काव्य के आश्रयदाता राजा उच्छिन्न हो गये तब उसका एकमात्र सहारा जनचित्त ही रह गया । किसी धर्मसम्प्रदाय का तो उसे सहारा मिलना नहीं था, इसलिये वह काव्य बहुत परिवर्तित रूप मे प्रास हुश्रा है; परन्तु चन्देशल-दरबार में भाषा-काव्य के सम्मानित होने का सबूत अवश्य देता है ।