पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/५०

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द्वितीय व्याख्यान दूसरी ओर गुजरात और मालवा के राजवश थे। गुजरात के राजा कुमारपाल तो बाद मे जैनाचार्य हेमचंद्र के प्रभाव से जैन हो गये थे। यद्यपि कुछ लोग उनके जैनधर्म- ग्रहण के बारे मे सदेह ही करते हैं, परन्तु इसमें कोई सन्देह नही करता कि वे जैन-प्रभाव में आए थे और जैनधर्म को उन्होंने बहुत प्रोत्साहन भी दिया। मालवा के परमार वैदिक धर्मानुयायी थे, परन्तु उन्होंने देश्यभाषा की उपेक्षा नहीं की। गुजरात के राजाओं का आश्रय पाने के कारण वहाँ अपभ्रंश देश्यभाषा खूब फली-फूली। मान्यखेट के राष्ट्रकूटों ने भी अपभ्रश का मान किया। उत्तर भारत के स्वयभू और पुष्पदत-जैसे प्रतिभाशाली कवियों की कृतियों वहीं सुरक्षित हुई । उधर पूर्व मे, पच्छिमी बंगाल में, गौहों का दुर्दान्त राज्य था। ये लोग बौद्ध थे और इन्होंने तत्कालीन सहजयानी बौद्धधर्म को प्रोत्साहन और संरक्षण दिया । इन पालवंशी गौड राजाओं की कृपा से ही बौद्ध सिद्धों के कुछ देशीभाषा के गान लिखित हुए जो बाद मे नेपाल-दरबार का राज्याश्रय पाकर किसी प्रकार सुरक्षित रह गए हैं। पर इन बौद्ध राजाश्रो की देशी भाषा और बौद्धधर्म को प्रश्नय देने की प्रतिक्रिया भी हुई और पूर्वी बगाल में कर्णाट देश से आए हुए सेन राजाओं का अभ्युदय हुश्रा, जिन्होंने संस्कृत भाषा और ब्राझणधर्म को बंगाल मे फिर से सहारा दिया। सेन राजा गाहड़वारों की भॉति पक्के वैदिक मतानुयायी थे और स्थानीय लोगों से अपनेको भिन्न और श्रेष्ठ समझते थे। कुलीनता के अभिमान को इन राजाओं ने बंगाल मे बद्धमूल कर दिया । यही कारण है कि इस काल में पूर्वी बगाल मे देशी भाषा का साहित्य नहीं मिलता। पाल राजाओं की कृपा से सुरक्षित साहित्य वर्तमान बिहार के पूर्वी और पच्छिम बंगाल के पश्चिमी इलाकों में लिखित साहित्य है। निस्सन्देह उनमे मध्यदेश की भाषा और साहित्य के मी कुछ चिह्न है; क्योंकि पाल राजाओ का सम्बन्ध बराबर काशी और कान्यकुब्ज से बना रहा। यह संबंध तीन प्रकार से रक्षित रहा- युद्ध से, विवाह से, तीर्थयात्रा से। इस प्रकार इस साहित्य के आधार पर हम मध्यदेश की साहित्य-साधना का श्रामास पा सकते हैं। सुप्रसिद्ध महाराज गोविन्दचन्द्र की रानी कुमार देवी गौड़ के राजा रामपाल के मामा महत की दौहित्री थीं और उन्ही के सामन्त देवरक्षित की पत्नी। उन्होंने सारनाथ मे बौद्ध विहार बनवाया था। उनका एक दानपत्र प्राप्त हुआ है। इस संबंध से यह सूचित होता है कि युद्ध-विग्रह होते रहते थे और विवाह-संबंध भी चलते ही रहते थे। तीर्थ यात्रा तो थी ही। अस्तु ।.. - गाहडवालों के शासनकाल मे समूचा हिन्दी-भाषी क्षेत्र स्मार्तमतानुयायी था। उनका प्रभाव जब क्षीण हो गया और अजमेर, कालिंजर आदि अधीनस्थ प्रान्तों मे स्वतंत्र राज्य स्थापित हुए तब भी स्मातंमत ही प्रबल रहा। इस समय शैवमत का भी बड़ा प्रभाव था। सिद्धियों की महिमा प्रतिष्ठित हो गई थी। शैवमतानुयायी नाथयोगियों, रसेश्वरमत के माननेवाले रस-सिद्धों और मत्र-तत्र में विश्वास करनेवाले शाक्त-साधकों का इन क्षेत्रों मे बड़ा जोर था। उन दिनों के साहित्य में इनकी बड़ी चर्चा आती है, परन्तु जैनों की भाँति इन शैव-साधकों के संगठित मत नहीं थे और देशी भाषा पर विशेष अनुराग भी नहीं था। फिर इनके उपदेश मे साधारण जनता के संबंध में बड़ी अक्शा का भाव है। वे इन अधम जीवों को भय ही दिखाते थे | चौरासी लाख योनियों मे निरन्तर भरमते रहनेवाले, काम-क्रोध के