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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

४२ कावर और हिन्दी-साहित्य का आदिकान रूप में विजातीय संस्कृति की उपस्थिति के कारण वह निर्गुणपंथी, सहनशील और उदासीन बना रहा। उसका आक्रामक रूप केवल जातिव्यवस्था के प्रति, मायाजाल में फंसे हुए दयनीय जीवों के प्रति और हिंसानूलक और दुर्नीतिमूलक आचरणो के प्रति जीता रहा। नहीं तो गोरक्षनाथ-जैसे अम्खड साधक भी अपने शिष्यो को यही उपदेश दे गए हैं- कोई वादी कोई विवादी जोगी को बाद न करना । अइसठि तीरथ समंद समार्ने यूं जोगी को गुरुमुषि जरना ।। और- हबकि न बोलिबा, ठबकि न चलिबा, धीरे धरिवा पांव । गरब न करिबा, सहजै रहिबा, भाँत गोरष रावं ॥ ___ अहिंसा मे इन लोगो का उतना ही दृढ़ विश्वास था जितना जैनों या वैष्णवो का। गोरक्षनाथ ने मासमक्षण और नशा-सेवन दोनों का घोर विरोध किया था- जोगी होइ पर निंदा झखै । मद मास अरु भांगि जो भखै । इकोवर से पुरिषा नरकहिं जाई । सति-सतिभाषत श्री गोरख राई ॥ अवधू मांस भषन्त दयाधरम का नास मद पीवत वहां प्राण नीरास भांगि भपंत ग्यांन ध्यान षोवंत जम दरबारी ने प्राणी रोवंत इसी प्रकार ब्रह्मचर्य और इन्द्रियसंयम पर भी इन्होंने बहुत जोर दिया है- यंद्री का लड़बड़ा जिभ्या का फूहड़ा गोरख कहें ए परतषि चूहड़ा। पूर्वी भारत मे बौद्धधर्म के तंत्र-मंत्रवाले अन्तिम बनयानी रूप का प्राबल्य था। सेनराजानों के समय उडोसा होते हुए दक्षिणी वैष्णवधर्म का प्रवेश बंगाल में हुआ। उत्तर मे वैष्णवधर्म उतना ऐकान्तिक नहीं था जितना दक्षिण में । ऐकान्तिक भक्ति के साथ वज्रयानी भावनाओं के मिश्रण से वैष्णवधर्म ने उडीसा में एक नया रूप ग्रहण किया । शुरू-शुरू मे सेनराजा शैव थे। विजयसेन स्वयं अपनेको परम शैव मानते थे; परन्तु उन्होंने प्रद्युम्नेश्वर का मन्दिर बनवाया था जिसकी मूर्ति मे शिव और विष्णु का मिश्रण था। उस मन्दिर के एक लेख मे इस मिश्रमूर्ति का बड़ा सुन्दर कवित्वमय वर्शन दिया गया है।' १. लक्ष्मीवल्लमशैलजादयितयोरद्वैतनीलागृहं प्रधुम्नेश्वरशब्दलान्छनमधिष्ठानं नमस्कुर्महे । यन्नालिङ्गनमंगकातरतया स्थिरवान्तरे कान्तयोः देवीभ्यां कथमप्यमिन्नतनुतां शिल्पेऽन्तरायः कृतः॥ चित्रहोमेमचमों हृदयविनिहिवस्थूनहारोरगेन्द्रः श्रीखपउनोदमस्मा करनिहितमहानीलरत्न समानः । वेधस्तेनास्य तेने गरुडमणिजतागोनसः कान्तमुक्ता नेपथ्यन्यस्तमाला समुचितरचने कल्पकापालिकस्य ।।