पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/५४

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द्वितीय व्याख्यान विद्यापति के पदों में शिव और विष्णु के इसी मिश्ररूप का वर्णन इस प्रकार है- धन हरि धन हर घन तव कला। खन पीत वसन खनहि बघछला। इत्यादि, जो लोग विद्यापति के बारे में कहा करते हैं कि वे शैव थे, अतएव वैष्णव भक्त नहीं हो सकते, वे उस काल की इस मनःस्थिति को नही जानते । समूचा उत्तर भारत प्रधानरूप से स्मात था, शिव के प्रति उसकी अखण्ड भक्ति बनी हुई थी; परन्तु उसमे अपूर्व सहनशीलता का विकास हुआ था और विष्णु को भी वह उतना ही महत्त्वपूर्ण देवता मानता था। शिव सिद्धिदाता थे, विष्णु भक्ति के आश्रय | गाहड़वाल-नरेश अपनेको माहेश्वर भी कहते थे और अपनी प्रशस्तियों में लक्ष्मीनारायण की स्तुति भी किया करते थे। इसी सहनशील, उदार और अनाक्रामक धार्मिक मनोभाव की पृष्ठभूमि मे हिन्दी का श्रादि- कालीन साहित्य लिखा गया। भक्ति के बीज के शकुरित और पल्लवित होने की यह उपयुक्त भूमि थी। बहुत-सी परवर्ती स्मृतियों और उपपुराणजातीय पुस्तके, बहुत-सी वैष्णव और शैय सहिताएँ इसी काल मे लिखी गई जिनमें मावी भक्ति-साहित्य के प्रेरणा-बीज वर्तमान थे। इस काल मे जो दो श्रेणी की अपभ्रंश और देश्यमिश्रित रचनाएँ मिलती हैं, वे इस युग की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक अवस्था के अनुरूप ही हैं। (१) इस काल मे केन्द्रीय शासन टूट चुका था । पश्चिम की ओर से विजातीय संस्कृति के पोषक दुर्दान्त शत्रुओं का निरन्तर आक्रमण हो रहा था। भारतवर्ष के वीर राजपूत उनसे जमकर लोहा मी लेते थे और केन्द्रीय सत्ता के हथियाने की फिक्र में भी रहते थे। उन्हे युद्ध करना पड़ता था। वे अपनी स्तुति भी सुनना चाहते थे। युद्ध उन दिनों के राजपूत राजाओं के लिये आवश्यक कर्तव्य हो गया था। उन्हें अन्य राजकीय गुणा के विकास करने और लोकनिष्ठ करने का अवसर नहीं मिलता था। लड़नेवालों की संख्या कम थी, क्योंकि लड़ाई भी जातिविशेष का पेशा मान ली गई थी। देशरक्षा के लिये या धर्मरक्षा के लिए समूची जनता के सन्नद्ध हो जाने का विचार ही नहीं उठता था। लोग क्रमशः जातियां और उपजातियों मे तथा सम्प्रदायों और उपसम्प्रदायों में विभक्त होते जा रहे थे । लडनेवाली जाति के लिए सचमुच ही चैन से रहना असम्भव हो गया था। क्योंकि उत्तर, पूरब, दक्षिण, पश्चिम सब ओर से श्राक्रमण की सभावना थी। निरन्तर युद्ध के लिये प्रोत्साहित करने को भी एक वर्ग आवश्यक हो गया था। चारण इसी श्रेणी के लोग हैं। उनका कार्य ही था- हर प्रसग मे आश्रयदाता के युद्धोन्माद को उत्पन्न कर देनेवाली घटना-योजना का आविष्कार। उस काल के साहित्य मे ऐसी छोटी-छोटी बातों पर लढाई हो जाने की बात मिलती है कि आज का सहृदय विस्मय से देखता रह जाता है। पृथ्वीराज के चाचा कन्ह ने किसी को मूंछों पर हाथ फेरते देखा, सिर उतार लिया। वे बिचारे शरणागत थे। पछतावा उन्हें भी हुश्रा । प्रायश्चित्तरूप में उन्होंने आँखों पर पट्टी बाँध ली। यह चोरता का आदर्श था! इन कवियों ने राजस्तुति के नाम पर असंभव घटनाओं और अपतथ्यों की योजना की। विवाह भी इस वीरता का एक बहाना बनाया गया । अाजकल के ऐतिहासिक विद्वान् वेकार ही इन घटनाओं और अपतथ्यो से इतिहास