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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का श्रादिकाल खोज निकालने का प्रयास करते हैं। इन काव्यों में व्यापक रूढियो के आधार पर अपने राजा को वा काव्य-नायक को उत्साह का आश्रय और रति का आलम्बन बनाना चाहा है। इनमें इतिहास को समझने का कम और तत्काल प्रचलित काव्य-रूढ़ियों को समझने का अधिक साधन है। दूसरी ओर हिमालय के पाद-देश मे कामरूप से लेकर हिंगलाज तक एक प्रकार की यक्ष-पूजा दीर्घकाल से प्रचलित थी जो बौद्धधर्म के पिछले दिनों में बौद्धधर्म को प्रभावित करने में समर्थ हुई और वज्रयान नाम से अभिहित हुई। उपासक दशासूत्र में मणिभद्र- चैत्य का उल्लेख है और संयुक्तनिकाय मे मणिभद्र यक्ष की चर्चा है। आगे चलकर यही मणिभद्र बुद्ध के प्रधान शिष्यों में गिने जाने लगे। फिर आगे चलकर बौद्धधर्म में वज्रपाणि यक्ष वो बोधिसत्त्व का पद पा गये और कृष्णयमारितंत्र' मे इन्हे सर्वतथागताधिपति कहा गया है। यक्षो और गुह्यकों का भोगपरक तात्रिकधर्म क्रमशः शक्तिशाली होता गया और आगे चलकर 'तथागतगुह्यक'-जैसे तानिक शास्त्रों की रचना हुई। यह यक्षकुल जिसमे अप्सराएँ, कामदेव और गंधर्वगण है, वज्रपाणि बोधिसत्व का उत्पत्तिस्थल बताया गया है। इन लोगों का प्राधान्य हिमालय के पाददेश में दीर्घकाल से था । बौद्ध- धर्म की उँगली पकडकर यह साधना मैदान मे आई और सातवी-आठवी शताब्दी मे काफी शक्तिशाली हुई। नवी-दसवीं शताब्दी में इस साधना को प्रतिकूल सामाजिक परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। ऐतिहासिक कारणो के दबाव से जातिशुद्धि गृहस्थ की प्रधान चिन्ता की बात बन गई थी, परिणामस्वरूप मैदान मे जातियों और उपजातियो का बोलबाला बढ़ता गया । विदेशी और विजातीय संस्कृति के दबाव से हिन्दुओं में एक तरफ जिस प्रकार जातिशुद्धि पर ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा था, उसी प्रकार आपस के धार्मिक खिंचाव को कम किया जाने लगा और उदार आचार-प्रधान स्मातधर्म की प्रतिष्ठा हुई। इस प्रकार जाति-पाति की ओर से कटोर, आचारपालन मे दृढ़ और पूजा-उपासना मे सहिष्णु तथा उदार हिंदूधर्म का आविर्भाव हुश्रा। फिर नवागत और नवोत्कर्ष-प्राप्त जातियों अपने उच्च कुल को, साधारण जनता से अपनी विशिष्टता को और अत्यन्त पुरानी परंपरा के कल्पिन दावों को जितने ही दृढ़कंठ से उद्घोपित करती गई, उननी ही कठोरता से साधारण जनता ने अपनी पुरानी परंपरा की स्मृति बचा रखने का प्रयास किया। श्रार्थिक और राजनीतिक कारणों से उन्हें सर्वत्र सफलता नहीं निली; पर प्रवृत्ति अधिकाधिक वंशशुद्धि की रक्षा और प्राचारपालन की कठोरता की ओर बढ़ती गई। इस प्रकार के समाज में यौनभावापन्न साधना के लिये अनुकूल वातावरण नही मिल सकता। इसका फल यह हुआ कि इस प्रकार के सन्तों की अभिव्यक्तिसंकोचपूर्ण, द्विविधा- ग्रस्त, रहस्यनिर्मापक और उलटबॉसी-जैसी रचनाओं के माध्यम से होने लगी। नाथपथियों ने ब्रह्मचर्य को तो करके अपनाया, परन्तु उक्त साधनाओं से उनका पुराना सम्बन्ध होने के कारण वे भी इसका इस प्रकार की अभिव्यक्ति करने लगे कि शिव-शक्ति का खेल पिंड मे ही चल रहा है। यह वात विरासत में निर्गुणिया सन्तों ने भी पाई, परन्तु जब धर्ममत और सामाजिक व्यवस्था परस्पर विरोधी नही रही तो भक्तिकाल मे इस प्रकार कीरहस्यात्मकता की आवश्यकता नहीं रह गई । पूर्वी प्रदेशो मे जहाँ भक्तिमार्ग सहजिया भावापन्न था, वहाँ कुछ