पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/५६

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द्वितीय व्याख्यान रहस्यात्मकता बाद में भी बनी रही; पर धार्मिक मत के सामाजिक नियमों के अनुकूल होते ही मध्यदेश से वह रहस्यात्मकता लुस हो गई। ___ दुर्भाग्यवश जिन सम्प्रदायों ने इस रहस्थात्मक साहित्य की सृष्टि की थी, उनकी परम्परा उनके सम्प्रदाय के रूप में नहीं जी सकी और उनके साहित्य का लोप हो गया । पूर्वी प्रदेशो मे थोड़ा-बहुत वह इसलिये रक्षित रह गया कि बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी तक वहाँ उक्त धर्म- मत सगठित सम्प्रदाय के रूप में जीता रहा । नेपाल श्रादि प्रदेशों से ही कुछ अल्पमात्रा मे इन रहस्यात्मक गीतों का उद्धार किया जा सका है। उत्तर भारत का धर्ममत नवीन सम्पर्क और नवीन प्रतिक्रिया के फल-स्वरूप बरावर अपनी पुरानी परम्परा पर कुछ अधिक दृढ़ता के साथ डटा रहा। हिमालय के पाददेश की साधना उसे अभिभूत नहीं कर सकी । यहाँ संस्कृत की और ब्राह्मणधर्म की प्रतिष्ठा बहुत बाद तक बनी रही। इस प्रकार न तो हमें इम प्रदेश के ऐसे साहित्य का ही पता लगता है जो राजरक्षित हों और न ऐसे ही साहित्य का जो सघटित सम्प्रदाय द्वारा सुरक्षित हो! केवल जनता की जिला पर जो कुछ बचा रहा, वही अनेक परिवर्तनों के बाद घट-बढकर क्वचित्-कदाचित् मिल जाता है। आदिकालीन हिन्दी-साहित्य के अरक्षित रह जाने की यही कहानी है। जिन पुस्तकों के आधार पर इस काल की भाषा प्रवृत्ति का कुछ अाभास पाया जा सकता है उनकी सल्या बहुत थोडी है। कुछ पुस्तकों की भाषा इतनी परिवर्तित हुई कि उसके विषय मे कुछ भी विचार करना अनुचित मालूम पड़ता है। कुछ तो ठीक से सुरक्षित हुई हैं, उनके अाधार पर कुछ अनुमान किए जा सकते हैं। परन्तु इन पुस्तको से काव्यरूपों का अध्ययन अधिक विश्वास के साथ किया जा सकता है। __ इस काल मे अपभ्र श काव्यों मे उन सभी प्रवृत्तियों का प्रारम्भ हो गया दिखता है जो आगे आनेवाली भाषा के प्रधान लक्षण माने जाते हैं। हमने पहले ही बताया है कि ठीक मवदेश मे बना कोई अपभ्रशकान्य नहीं मिलता। अधिकाश पुस्तके किनारे पर स्थित प्रान्तों से ही प्राप्त हुई है। फिर भी ये पुस्तकें बहुत सहायक है । हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन मे दो प्रकार के अपभ्रशों की चर्चा की है। एक तो शिष्ट जन की अपभ्र श माषा जिसका व्याकरण स्वयं हेमचन्द्राचार्य ने लिसा था और जो प्रधानरूप से जैन पडितों के हाथों संवरती रही। यह बहुत-कुछ प्राकृत और संस्कृत की भाँति ही शिष्टभाषा बन गई थी। दूसरी ग्राम्य अपभ्रंशभाषा जो सम्भवत. चलती जबान थी। भाषाशास्त्र की दृष्टि से यह अधिक अग्रसर हुई भाषा है। सन्देशगसक इसी प्रकार के अपभ्रंश मे वारहवी-तेरहवी शताब्दी मे-अर्थात् लगभग उसी समय अत्र पृथ्वीराज रासो लिखा जा रहा था-रचित हुआ था। इसकी भाषा बोलचाल के अधिक नजदीक थी । यद्यपि इसके कवि अद्दहमाण या 'अब्दुल रहमान' प्राकृत-अपभ्रश की परम्परा के अच्छे जानकार थे और बीच-बीच में उन्होने जो प्राकृत गाथाएँ लिखी हैं, वे उनकी प्राकृत-पटुता की सूचना देती हैं। फिर भी उन्होने अपनी रचना बोलचाल के अधिक नजदीक रखने की ओर अधिक ध्यान दिया है। उन्होंने नम्रता प्रकट करते हुए कहा है कि जो लोग पडित है, वे तो मेरे इस कुकाव्य पर कान देगे ही नहीं और जो मूर्ख हैं-अरसिक हैं-उनका प्रवेश मूर्खता के कारण इस ग्रन्थ मे हो ही