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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का श्रादिकाल नही सकेगा, इसलिये जो न पंडित हैं, न मूर्ख हैं; बल्कि मध्यम श्रेणी के है, उन्हीं के सामने मदा हमारी कविता पढ़ी जानी चाहिए- गहु रहइ बुहा कुकवित्त रेसि अबृहत्तणि अबुहह राहु पवेसि । जिण मुक्ख ए पंडिय मज्भयार तिह पुरउ पढिब्बउ सब्बवार ।। सो, यह काव्य बहुत पढ़े-लिखे लोगों के लिये न होकर ऐसे रसिकों के लिये है जो मूर्ख तो नहीं हैं, पर बहुत अधिक अध्ययन भी नहीं कर सके है । रामो कुछ इसी ढंग की भाषा मे लिखा गया होगा। यद्यपि कवि ने उस ग्रन्थ में भी थोड़ी नम्रता दिखाई है; पर वह प्रथापालनमात्र के लिये, नहीं तो रासोकार को अपने भाषाशान पर गर्व है। उसकी भाषा मे थोडो प्राचीनता की छौंक दी गई हो तो कोई आश्चर्य नहीं। सौभाग्यवश रासो के चार छंद अपभ्रंशरूप मे प्राप्त हो गए हैं जिनसे मूल रासो की भाषा का कुछ अन्दाजा लग जाता है। तत्कालीन साहित्यिक भाषा के जो भी उदाहरण मिल जाते हैं, उन्हें देखते हुए अनुमान किया जा सकता है कि पुरातन-प्रबंध-संग्रह मे सुरक्षित छप्पयों की भाषा के आसपास ही मूल रासो की भाषा रही होगी। पुरानी हिन्दी का जो भी रूप उपलब्ध होता है, वह पबद्ध है। पद्य के लिये इस भाषा मे कवियों को कुछ रियायती अधिकार प्राप्त हुए थे। शुरू-शुरू में यह अधिकार ठीक मात्रा में प्रयुक्त हुए थे, बाद में कई कवियों ने इस अधिकार का दुरुपयोग किया। मूल रासो की भाषा मे इस अधिकार का उपयोग तो था; पर दुरुपयोग नहीं था । पद्य मे मात्रा ठीक रखने के लिए कवियों ने अावश्यकतानुसार चार मुख्य पद्धतियो से काम लिया है (ह. मा०, पै० १६ और पै० १७)। संदेशरासक मे इस प्रवृत्ति का पूर्ण परिचय मिलता है। अन्य अपभ्रंश ग्रन्थों मे भी इसकी भरमार है। ये पद्धतियों निम्नलिखित हैं- १. स्वार्थक प्रत्यय अ, ड, अल, इल्ल, उल्ल श्रादि के योग से- अलंकृत का अपभ्रश रूप 'अलंकिय' है; पर छन्दोनुरोध से इसमें स्वार्थक 'अ' प्रत्यय जोडकर 'अलंकियउ' रूर बना लिया जाता है, इसी प्रकार पंकित' 'पंकिय' होगा, उसे 'पंकियउ' बना लिया जा सकता है, मुक्त 'मुक्क' होगा, उसे 'मुक्कनो' बना लिया जा सकता है। स्थूलाक्षर पदो पर ध्यान दीजिए- मयरणवट्ट मिश्रणाहिण कस्स व पंकियउ अन्नह भानु तुरक्कि तिहइ अालंकियउ (सं० रा०४८) इकु वाणु पुहमीसजु पई कइमासह मुक्को (पु० प्र० में चन्द का छन्द) इसी प्रकार 'गयउ' 'चलिय' आदि प्रयोग हैं जो परवत्ती ब्रजभाषा कविता में खूब मिलते हैं। यह विशेषण और संज्ञापदों में युक्त होता है- सो जग जणमउ सो गुणमन्तउ जेकर पर उवभार हसन्तउ (प्रा० सू०, पृ० १६०) 'इल्ल', 'उल्ल' 'ह' आदि स्वार्थक प्रत्यय अपनंश में बहुत पहले आ गए थे, कभी- कभी एक, दो और तीन प्रत्ययों का योग भी मिलता है (बलुल्लडा-हेम०) और यह वात