पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/५८

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द्वितीय व्याख्यान ७ परवत्तों हिन्दी रचनाओं में भी पाई जाती है-'मुखडा', 'जियरा', 'हियरा', 'गहेलडी' (रहु रहु मुगुध गहेलड़ी-कबीर) आदि मे ऐसे ही स्वार्थक प्रत्यय हैं जो अधिक प्रयोग के कारण मूल शब्दो से थोडा विशिष्ट अर्थ ध्वनित करते हैं। शुरू-शुरू मे अपभ्रश मे प्रयोग पद्यगत रियायत प्राप्त करने के उद्देश्य से हुआ होगा, फिर धीरे-धीरे इन शब्दो ने इनका अधिक काव्य के सुकुमार अर्थों को वहन करनेवाले कुछ विशिष्ट अर्थ धारण किए होंगे। हेमचन्द्र द्वारा उद्धृत इस दोहे मे 'उल्ल' और 'ह' दो स्वार्थक प्रत्यय बल शब्द के साथ युक्त होकर कोई विशिष्ट अर्थ नहीं बताते- सामि सरोसु सल्लज्ज पिउ, सीमा संधिहि बासु । पेक्खिवि बाहुबलुल्लड़ा, धण मेल्लइ निसासु ॥ [ मालिक सरोष है, अदना-सी बातों पर लड़ पड़ने को प्रस्तुत है, मेरा प्रिय सलज्ज है और निवास देश की सीमा सधि पर है (जहाँ कभी भी तलवार बज जा सकती है)। वह सब सोचकर और अपने पति के बाहुबल को देखकर वह धन्या (दुलहिन) (चिन्तावश) दीर्घ निःश्वास छोडा करती है । ] परन्तु कबीर के दोहे मे इस 'हा' के घिसे रूप 'रा' ने कुछ अधिक सुकुमारता ला दी है- 'जियरा योंही लेहुगे निरह तपाइ तपाइ ।' २. लघुस्वर को गुरु बनाकर छन्दःपूर्ति की योजना- (क) दो-तीन प्रकार से यह कार्य किया जाता था। प्रथम हस्व स्वर को दीर्घ करके । हेमचन्द्र ने तो यह साधारण नियम ही बना दिया था कि अपनश मे हस्व और दीर्घ का व्यत्यय हो सकता है। पर यह नियम पदान्त मे ही होता है। 'भल्ला हुश्रा जो मारित्रा' मे दोनों ही स्थानों पर पदान्त दी है। यह बात जायसी, तुलसी और कवीर मे भी मिलती है। इन कवियों ने पदान्त हस्व को तो कम, किन्तु अावश्यकता पड़ने पर छन्द के अन्त मे श्रानेवाले पद के अन्तिम स्वर को दीर्घ बनाकर काम चला लिया है। खोजने पर साधारण पदान्त दीर्घ के उदाहरण भी मिल जाएँगे, पर प्रवृत्ति पादान्त मे आए पद के अन्तिम हस्व स्वर को दीर्घ करने की ही रही है इसे 'पादान्त' दीर्घ की प्रथा कहा जा सकता है। 'हसव ठठाइ फुलाउव गालू' (तुलसी) मे 'गालू' का अन्तिम उकार इसी नियम से दीर्घ हुश्रा है। इसी प्रकार 'सहि नहिं सकहु हिये पर हाउँ' और 'ससिमुख जबहिं कहै किछु बाता' (जायसी) मे पादान्त दीर्घ इसी प्रथा के चिह्न है। किन्तु अपन श में पद्य के मध्य में भी दीर्घ करने के उदाहरण मिल जाते हैं (ह• भा०, पै० १६)। 'प्रसाधन' का नियमित अपभ्र श रूप 'पसाहन' होना चाहिए; पर सन्देश-रासक में इसे 'पासाहण' किया गया है रहसच्छलि कीरइ पासाहण' (पद १७६)। प्राकृत पिंगलसूत्र की कविताओं मे छन्द के चरण के अन्तवाले (पादान्त) इस्व को दीर्घ करने की प्रथा बहुत अधिक रूढ हो गई थी। जैसे, 'जहाँ भूत बेताल णचन्त गायन्त खाए कबन्धा' (पृ० १६४)| इसमे 'कबन्धा' मे पादान्त दी है। पादमध्य में आनेवाले पदान्त हत्व को दीर्घ करने के उदाहरण भी मिलते हैं। इसी पद्य मे आगे इस प्रकार है- का दुट्ट फुटुंइ मन्था कबन्धा गचन्ता सन्ता। तहाँ वीर हम्मीर संगाम मज्मे तुलन्ता जुलन्ता ।।