हिन्दी-साहित्य का आदिकाल श्रावश्यकता पड़ने पर शब्द के मव्य (पदमध्य) स्वर को भी दीर्य कर लेने की प्रथा दिख जाती है, जैसे निम्नलिखित पद्यों में पूरिस में 'यू' और गुरू में 'रू- काहि पूरिस गेह मण्डणि एह सुन्दरि पेक्खा । (पृ० १९५) गुरू सद्द किज्जे अ एका तारेण । (पृ० १५८) संभवतः इस प्रथा का पुराना अवशेष संस्कृति के 'पद्मावती' जैसे शब्दों में खोजा था सकता है जिसके तौल पर 'कनकावती' 'मुग्धावती' जैसे- शब्द हिन्दी मे चल पड़े । ललित- विस्तर और अन्य महायानी ग्रंथों की संस्कृत-गाथा में इस नियम के अनेक चिह्न मिल सकते हैं। पदान्त दीर्थ पर विचार करने से ऐसा मालूम होता है कि मूलतः यह बात स्वार्थक 'श्र' ('क' का घिसा रूप) प्रत्यय के साथ बने हुए रूप का संक्षेपित रूप है । 'वंडल' 'अ'-'तडला । एल्सडोर्फ का कहना है कि अपभ्रंश की स्वाभाविक प्रवृत्ति हस्तात की है। दीर्घ तो केवल स्वार्थक प्रत्ययों के साथ बने रूप का संक्षेपित रूप है। उदाहरणार्थ, 'मारी अपभ्रंश में 'मंजरि' बन जाती है फिर स्वार्थक 'अ' प्रत्यय से युक्त होकर 'मंजरिया 'मंजरिव' बनती है जो संक्षेपित होकर फिर 'मंजरी' बन जाती है। इसलिए अपभ्रंश के दीर्घान्त रूप वस्तुतः हस्वान्त ही है ! (ख) एक दूसरा कौशल है-परवी वर्ण को द्वित्व करके पूर्ववर्ती तघुस्वर को सयोग-परक बनाकर गुरु बना देना । प्राकृत मे ही यह प्रवृत्ति शुरु हो गई थी। जैसे,—'लज्जा गई 'परब्यसो श्रप्या' (रत्नावली) में 'परब्बसो' 'वरखशः' का प्राकृत रूप है। वकार के द्वित्व का कोई कारण नहीं है । केवल छन्दःसौकर्य के लिये ही यह किया गया है। 'संदेशरासक' में, 'चिरग्ग' (चिरगतः), 'समय' (समयः) जैसे प्रयोग बहुत है । प्राकृत पिंगलसूत्री के उदाहरण में हयग्गय (हयगज), 'परवश (परवश)-जैसे प्रयोग पर्याप्त मात्रा में मिल जाते हैं और हेमचन्द्र का भमर' तो यहाँ अनायास 'भग्मर बन जाता है, केवल छन्दोयोजना की आवश्यकतापूर्ति का अवसर मिलना चाहिए- गज्जउ मेह कि अम्बर सम्मर । फुल्तउणीव कि बुल्लड मम्मर ॥ इसी प्रकार- फुल्ला णीवा वोल्ले मम्मरु दक्खा मारुष बीअन्ताए (पृ० १९३) 'गर्वगत' का गन्नग' होना स्वाभाविक है, पर प्राकृत पिंगलसूत्र के उदाहरण में 'गब्बगत' मिल जाता है-'रोसरत गवगत हक्क दिगण भीपणा । इसी प्रकार (पृ०१७१) 'पदातिक' से अपभ्रंश में 'पाइक' या 'पायक' बनता है। पुरातन-प्रबंध-संग्रह के रासोवाले छप्पयों में से एक मे इसे 'पाय' किया गया है और फलक को 'फारक्क'- 'बीस लक्ख पायक सफर फारक धनुद्धर' (पृ०५३) इन दिनों जो रालो मिलता है, उसमें तो इस नियम का अत्यधिक प्रयोग है सो दुरुपयोग की सीमा को भी पार कर गया है। उदाहरणार्थ-- 'फरक्कि' 'झडपि चल्जि' 'लिबिम्ब श्रादि मे इसी परम्परा को दुरुपयोग की सीमा तक घसीटा गया है। मूल रामो में यह