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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी-साहित्य का श्रांदिकाल लेकिन यही शब्द ह्रस्व होकर संदेशरासक में 'झल' (उल्हवइ ण केणइ विरहझल, १३७) बना है। इसी प्रकार 'नारायणः' अपभ्रंश मे 'नारायणु' या 'णारायणु' होगा। परन्तु प्राकत पिंगलसूत्र के उदाहरण में उसे 'णरायणु' किया गया है- कुल खत्तित्र कम्ये, दहमुहु कट्टे कंस अ केसि-विणासकरा करुणे पश्रले मेच्छह विश्रले सो देउ 'गणरायणु तुम्ह बला (पृ०२१६) क्षित्रिय-कुल कंश या, दशमुख को काटा, कंस और केसी का नाश किया, करुणा को प्रकट किया म्लेच्छो को विकल किया, वह नारायण तुम्हे बल दे] इस बात को भाषा-विज्ञान के साधारण नियमो से समझाया जा सकता है । 'नारायण' में 'रा' के श्राकार पर स्वराघात पड़ने से 'ना' का श्राकार ह्रस्व हो जायगा । परन्तु यदि यह बात होती तो और कही भी अपभ्रंश मे 'नारायण' रूप न मिलता। इसलिए यहाँ मैंने इसे उदाहरणरूप में उद्धृत किया है। सदेशरासक में 'सीतल' 'सीयल' का 'सियलु' रूप मिलता है (मर-सियलुवाइ महि सीयलंत) और पदान्त 'श्री' और 'ए' को ह्रस्व कर देने की प्रथा तो बहुत पुरानी है। हेमचन्द्र के उद्धृत दोहों में ही यह बात बहुत अधिक मिल जाएगी। तहे मुद्धहे मुह पंकइ आवासिड सिसिरु (३५७) निरुपम रसु पिएँ पिंथावे जणु सेसहो दिएणी मुद्द। (४०१) इत्यादि कभी-कभी पदमध्य में भी श्रा जाता है । अवश्य ही, ऐसे स्थलों पर पदान्त की स्मृति खोजी जा सकती है। जैसे, 'भमरा एत्युवि लिंबडह केवि दियहडा विलंबु ।' के 'कवि' में 'के अपि' की स्मृति खोजी जा सकती है। पु० प्र० के रासो-छप्पयों में पदान्त 'ओकार' के हस्व के अनेक उदाहरण हैं-'अगड्डु म गहि दाहिमश्रो' में 'बाहिमरो' का प्रोकार हस्व है। 'मच्छिबंधि बद्धो मरिसि' में 'बद्धो का श्रोकार भी ऐसा ही है। परवर्ती हिन्दी कविता में यह प्रवृत्ति पर्याप्त मात्रा में मिल जाती है। (ख) सयुक्त वणों में से एक को ही रखकर पूर्ववर्ती स्वर को लघु बनाना- अपभ्रश में 'थक्कइ' (रहता है) प्रयोग मिलता है । इसीसे बंगला थाक् धातु आया है। प्राकृत पिंगलसूत्र में एक सरस उदाहरण इस प्रकार है- फुल्लिब केस कम्प तहँ पालिन मंजरि तेजिअ चूना दक्खिण वाउ सीन भई पबहइ कम्प विओइणि हीया। केआइ धूलि सब दिस पसरित्र पीअरु सबउ भासे आउ बसन्त काइ सहि करिहउ कन्त ण थकइ पासे । (पृ० २१२) [केस फूलने लगे, पल्लव कॉपने लगे, श्रामों में मंजरी निकल श्राई, दक्षिण वायु शीतल होकर प्रवाहित होने लगी, वियोगिनियों का हृदय कॉपने लगा। केवडे की धूलि चारो ओर फैल गई, सब जगह बसन्ती रग लहक उठा-इस प्रकार हे सखी, वसन्न तो आ गया, पर प्रिय पास मे नहीं हैं !]