पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/६२

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द्वितीय व्याख्यान - किन्तु श्रावश्यकता पड़ने पर इस 'थकई' को 'थकई' कर लिया जा सकता था। इसी प्राकृत पिंगलसूत्र के उदाहरण मे इस प्रकार है- जो पुणु पर उवार विरुज्झइ तासु जगणि कि ण थकइ बभइ ।। (पृ० १६०) [जो पुनः परोपकार का विरोध करता है, उसकी माता बॉम क्यों नही रह जाती ] हेमचन्द्र में भी इस प्रकार के प्रयोग मिलने लगते हैं। 'विषमस्तन' का 'विषमत्थन' होना उचित था, किन्तु हेमचन्द्र के उदाहृत दोहे में 'विसम-यन' (३५०) मिलता है। अन्यत्र ऐसे ही स्थल पर 'गण्डथले' न कहकर 'गण्डत्यले' कहा है-एक्कहि एक्खहिं सावणु अन्नहि भद्दवउ; माहउ महियलसत्थरि गण्डत्थले सरउ ।' (३५७) इसी तरह 'उनमुक्त' से अपभ्र श रूप 'उम्नुक्क' बनेगा; पर आवश्यकता पड़ने पर अपभ्र श का कवि 'उमुक्क' लिख सकता था ('धम्मिल उमुक्कमुह' (सं० रा०६७)। परन्तु वही कवि मौका पड़ने पर 'उसास' लिखने मे भी सकोच नहीं करेगा | हिन्दी मे 'उछाह' 'भगतबछल' श्रादि प्रयोग इसी प्रवृत्ति के परिणाम हैं। छन्द का अनुरोध न होता तो ये शब्द 'उच्छाह' से आगे बढ़कर 'अछाह' और 'बच्छल' से आगे बढ़कर 'बाछल बन गये होते। संदेशरासक में और प्राकृत पिंगलसूत्र के उदाहरणों में यह प्रवृत्ति काफी अधिक है । परवर्ती हिन्दी साहित्य मे तो है ही। समुद्र का 'समुद्द' होना चाहिए । जायसी ने 'समुद' बना दिया है-'जे एहि खीर समुद महें परे' (पृ०६०) और दीठिन श्राव समुद्र और गगा (पृ०६० इत्यादि ।) (ग) एक दूसरा कौशल है अनुस्वार को द्वस्व करने के लिए सानुनासिकमात्र रहने देना और लिखने मे चन्द्रविन्दु देकर काम चला लेना । यह भी पुरानी प्रवृत्ति है । हेमचद्र ने एक दोहा इस प्रकार दिया है- विप्पियारउ जइवि पिउ तोवि ते आणहि अजु । अगिण दट्ठा जइवि घरु तोवि तें अग्गि कज्जु । यद्यपि प्रिय अप्रिय काम करनेवाला है तो भी (ऐ सखी,) तू उसे ले श्रा। यद्यपि घर श्राग से जल गया है तो भी श्राग से काम तो पड़ता ही है !) यहाँ 'त' के अनुस्वार को चन्द्रविन्दु मे बदल दिया गया है । संदेशरासक मे संपूर्ण से 'सउन्न' बनाया गया है। इसमे '5' का अनुस्वार एकदम उड़ा दिया गया है। सभवतः यह लिपिकार का प्रमाद है। मूल में वह चन्द्रविन्दु के रूप में रहा होगा। हिन्दी मे इस प्रकार अनुस्वार से चन्द्रविन्दु और फिर चन्द्रविन्दु का एकदम लुप्त होजाना बहुत हुआ है। पकिका–पल्लकिला-पालंकि-पालकी-पालकी। परवर्ती हिन्दी-काव्यों मे इस कौशल से बहुत काम लिया गया है-'चॅदनक चौकि बइस तह राना' इत्यादि)। पु० प्र. के रासो छप्पयों में भी यह प्रवृत्ति है। शाकंभरी से सायमरी और साइंभरि फिर सहमरि बना है। किन्तु 'पटु पडुविराय सईभरि धणी सयंभरि उणइ संभरिसि' में दो स्थानों पर इस अनुस्वार को हल्का करने का प्रयत्न किया गया है । प्राकृत पिंगलसूत्र के उदाहरण मे भी इस कौशल