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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का आविकाल के चिह्न मिल जाते हैं-'पंचमी, को 'पंचमी' किया गया है- __'पंचमी चउठी तिअहि मिलाउ।' ४. एक और कौशल है शब्दों को सिकोड़ना या लम्बा स्त्रींचना। दोनों ही कौशलों का आविर्भाव अपभ्रंश रचनाओं मे मिलता है और दोनों ही परवती हिन्दी कविता में प्रयुक्त हुए हैं। इन दोनों कौशलों का नाम संकोचन और संप्रसारण दिया जा सकता है। (क) संकोचन का कौशल। 'सहकार' अपभ्रश मे 'सहबार होगा। सुविधा के लिए इसे 'साहार' और फिर 'सहार' बनाया जा सकता है। दोनों ही प्रयोग हिन्दी मे मिल जाते हैं। (१) हउ किय णिस्साहार पहिय साहार वरिण (१३४) (२) साहारह पाउण सा अंगिरह। इसी प्रकार मयूर से 'मऊर और उससे 'भोर। सं० स० में भी यह प्रयोग मिलता है और ढोला मारू में भी-'महि मोरों मण्डव करह मनमय अंगिन माइ ।' इसी तरह 'द्विगुण' दिउण होगा; किन्तु प्राकृत पिंगलसूत्र में उसे 'दुएए' करके संकोच किया गया है- 'करणो दुरण हार एक्को विसज्जे । सल्ला करणा गंध करणा सुणिज्जे ।' 'श्रद्धद्वतीय 'अड्ढीय' बन जाता है जो आगे चलकर 'अढ़ाई से और भी सकुचित होता हुश्रा 'ढाई' बन गया है । 'अढ़ाई मे का 'अकार' जिस प्रकार लोप हुश्रा है वह प्रक्रिया भी अपभ्रंश काल मे परिचित थी। 'अरण्य' से 'अरण्ण' और फिर 'रएण' हेमचन्द्र के व्याकरण में पाया जाता है। उपस्कर से उवक्खर और उवक्खर का 'वक्खर' संदेशरासक में मिल जाता है (मह साइय वक्खा हरि गउ तवर जाउ सरणि कसु पहिय मणे ६५) और रत्न तो मिल ही जाता है। (मच्छर भय संचडिट रनि गोपंगणहि १४६)। इसी प्रकार और भी प्रयोग खोजे जा सकते हैं। ब्रजभाषा मे 'अरु' का 'रु', अहै का 'है', 'नहीं' का 'ही' इसी के रूप हैं। जायसी ने अहा (या) का प्रयोग किया है (जब लगि गुरु हौ अहा न चीन्हा) इसी का स्त्रीलिंग 'अही' होता है और इसी श्रही का संक्षिस रूप (संकोच रूप) 'ही' है। अपभ्र श में संकोच की प्रवृत्ति और भी कई रूपों में रही। उपदेश का अपभ्रंश रूप 'उवएस' होगा, इसी का सक्षिप्त रूप 'उवेस' बन गया है (सरहे कहिय उवेस)- यह सकोचन का एक उदाहरण है। स्वर्णकार का 'सुण्णधार' अपभ्रंश रूप है जिससे सदेशरासक का 'सुन्नार रूप बना है- सुन्नारह जिह मम हियउ, पि य उदिख करे। विरह हुयासि दहेवि करि, आसाजलि सिंचेइ ।। (१०८) [प्यारे सुनार की तरह मेरा हृदय प्रिय की उत्कण्ठा कर रहा है जो विरह-रूण अग्नि में जलाकर फिर अाशा के जल से सीचा करता है।] परवर्ती हिन्दी कविता में यह प्रवृत्ति और भी बढ़ी। 'सुन्नार आगे चलकर 'सुनार' बन गया। अपनश में 'बई' या 'अय' जहाँ था वहाँ हिन्दी में 'ऐ बन गया 'अउ' या