पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/६५

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तृतीय व्याख्यान पिछले व्याख्यान में मैंने यह दिखाया है कि अपभ्रंश या देश्यभाषा की ऐसी रचनाएँ जिनका निर्माण नाम के हिंदीभाषी क्षेत्रो मे हुआ था, प्रायः नहीं मिलतीं । जो मिलती भी हैं, वे अपने मूल अविकृत रूप में नहीं मिलती। अपभ्रंश के जिन चरितकाव्यों की चर्चा पहले की गई है, वे अधिकाश जैन-परंपरा से प्राप्त हुए हैं और हिंदी-भाषी क्षेत्रों के बाहर लिखे गये हैं। वे इस बात की सूचना देते हैं कि इस काल में जैनेतर-परंपरा में भी प्रचुर काव्य-साहित्य लिखा गया था । नानाऐतिहासिक कारणों से ये रचनाएँ सुरक्षित नहीरह सकी। एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचना 'पृथ्वीराजरासो' है। किसी समय यह प्रय बहुत प्रामाणिक माना गया था और पृथ्वीगण-विषयक इतिहास के लिए प्रामाणिक स्रोत समझा गया था । बगाल की एसियाटिक सोसायटरी ने इसका प्रकाशन भी श्रारंभ कर दिया था। लेकिन उन्हीं दिनों डॉ. बूलर प्रथानुसंधान के लिए कश्मीर गये और वहाँ उन्हें 'पृथ्वीराज-विजय' की एक खडित प्रति मिली। यह सन् १८७६ ई. की बात है। डॉ० बूलर को 'पृथ्वीराजविजय' अधिक प्रामाणिक ग्रंथ मालूम हुश्रा और उन्होंने सोसायटी को एक पत्र लिखकर (१८६३ की प्रोसीडिंग्स देखिए) पृथ्वीराजरासो का मुद्रण बद करा दिया। बाद मे इस विशाल ग्रंथ को काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किया । किन्तु तभी से विद्वानों के मन मे रासो की उपादेयता के संबंध में शंका उत्पन्न हो गई। डॉ. धूलर ने अपने पत्र में रामो की इतिहासविरुद्धता की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया था। उनका विश्वास था कि पृथ्वीराजविजय मे लिखी घटनाएँ सन् १७३ ई० से सन् १९६८ ई० तक की प्रशस्तियों और शिलालेखों से मिलेती हैं। पृथ्वीराजविजय के अनुसार पृथ्वीराज सोमेश्वर और उसकी रानी कर्पूर देवी के पुत्र थे । कर्पूर देवी चेदिदेश के राजा की कन्या थी । पृथ्वीराज को वाल्या- वस्था में सिंहासन मिला था और राज्य का संचालन उनकी माता कपूर देवी कदम्बवास नामक मत्री की सहायता से करती थीं। कदम्पवास रासो का प्रतापी मंत्री 'कैमास' है। परन्तु पृथ्वीराजरासो के अनुसार पृथ्वीराज अनंगपाल की पुत्री से उत्पन्न हुए थे और दचक भी थे। पृथ्वीराज के लेखों से पृथ्वीराजविजय का ही समर्थन होता है। पृथ्वीराज के अत्यन्त अभिन्न मित्र माने जानेवाले कवि का यह प्रारंभ ही इतना गलत हो- यह बात समझ में नहीं पाती।