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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य का आदिकाल (जो कीर्तिलता के अवहट के समान भी हो सकती है) उत्साही जैन मुनियों के हाथ कुछ शुद्ध बनकर विशुद्ध अपभ्रंश बन गई हो। यह सभावना हो सकती है। हमे उस ओर से सावधान होना होगा । इसीलिए मैं भाषा की दृष्टि से इस प्रश्न पर अभी विचार करने योग्य स्थिति में नहीं हूँ। साहित्यिक दृष्टि से यदि कुछ हाथ लग जाय तो वह भी कम लाभ नहीं है। 'अर्ध तजहि बुध सरबस जाता!' मिन्न-भिन्न विद्वानों के परिश्रम से अबतक रासो के चार रूप उपलब्ध हुए है। इनमें सबसे बड़ा तो काशी-नागरी-प्रचारिणी सभावाला संस्करण है जो सं० १७५० की उदयपुर- वाली प्रति के आधार पर संपादित हुअा था। ओरियेंटल कॉलेज, लाहौर की एक प्रति है जिसको पं० मथुरा प्रसाद दीक्षितजी असली रासो मानते हैं। इसकी एक प्रति बीकानेर के बडे उपासरे के जैनशानभंडार में है, एक अबोहर के साहित्यसदन में है और एक श्री अगरचंद नाहटा के पास है। दीक्षितजी कहते हैं कि रासो के 'सत्त सहस' का अर्थ सात हजार है और इस दूसरे रूपान्तर की श्लोकसंख्या प्रार्थी के हिसाब से लगभग सात हजार है भी। इस रूपान्तर की सभी प्रतियाँ संवत् १७०० के वाद की बताई जाती हैं। तीसरा लघुरूपान्तर है जिसकी तीन प्रतियों तो बीकानेर-राज्य के अनूप-संस्कृत-पुस्तकालय में तथा एक श्री अगरचंद नाहटा के पास है । इसकी एक प्रति सत्रहवीं शताब्दी की है । नाहटाजी- वाली प्रति सं० १७२८ की है और बाकी दो में संवत् नही दिया गया है; पर अन्दाज से उनका भी समय इसी के आसपास कूता गया है। चौथा एक लघुतम संस्करण है जिसे राजस्थानी साहित्य के परिश्रमी अन्वेषक श्री अगरचंदजी नाहटाने खोज निकाला है। इसका लिपिकाल स० १६६७ है।' यह दावा किया जाने लगा है कि लघुतम रूपान्तर ही मूल रासो है। परन्तु इतिहास की जिन गलतियों से बचने के लिए बड़े रासो को अप्रामाणिक और छोटे रासो को प्रामाणिक बताया जाता है, उनमें से कुछ-न-कुछ छोटी प्रतियों में भी रह ही जाती हैं। वस्तुतः कई भिन्न-भिन्न उद्धारकों ने चद के मूल ग्रन्थ का उद्धार किया था। सभी सस्करण परवर्ती हैं, सबमे क्षेपक की संभावना बनी हुई है । ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर एक भी प्रति प्रामाणिक नहीं ठहरती ।। इधर उदयपुर के कविराव मोहन सिंह ने रासो की ऐतिहासिक प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए एक दूसरा ही उपाय सुझाया है। उनका कहना है कि रासोकार ने अपने द्वारा प्रयुक्त छंदों की जाति के बारे में स्वयं ही लिखा है कि- छंद, प्रबंध कचित्त यति, साटक गाह दुहत्य । लघु गुरु मंडित खंडि यह, पिंगल अमर भरत्थ ।। अर्थात् (मेरे प्रबंधकाव्य रासो में) ऋवित्त (षट्पदी), साटक (शार्दूलविक्रीडित), गाहा (गाथा) और दोहा नामक वृत्त प्रयुक्त हुए है जिनमें मात्रादि-नियम पिंगलाचार्य के अनुसार हैं और सस्कृत (अमरवाणी) के खुद भरत के मतानुकूल है। १. डॉ. उदयनारायण तिवारी : वीरकाव्य, पृ० १०८-१११ । २. रासो की ऐतिहासिक श्रालोचना के सारांश के लिए देखिए, वीरकाम्य पृ० ११४-१५३॥ ३. राजस्थानमारती, भाग १, अंक २-३, जुलाई-अक्टूबर १९४६ : पृथ्वीराजरासो की प्रामाणिकता पर पुनर्विचार।