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५८
हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

५८ हिन्दी साहित्य का आदिकान पुस्तक कीर्तिलता को काहाणी' या कहानी (कथानिका) कहा है-'पुरिस काहाणी हउँ कहउँ।' रासो मे भी कई बार उस काव्य को 'कीर्तिकथा' कहा गया है। इस प्रकार यह 'कथा' शब्द बहुत व्यापक अथों में प्रयुक्त हुश्रा जान पड़ता है। कुछ थोडे से सामान्य लक्षण इन काव्यों में अवश्य एक-से रहते होंगे। उनपर विचार किया जाना चाहिए । संस्कृतं के आलंकारिक प्राचार्यों ने 'कथा' शब्द का प्रयोग एक निश्चित काव्य- रूप के अर्थ मे किया है। संस्कृत की 'क्या' गद्य मे लिखी जाती थी। एक इसी श्रेणी की गयबद्ध रचना और भी होती थी जिसे श्राख्यायिका कहते थे। भामह ने काव्यालंकार (१।२५-२८) मे सुन्दर गद्य मे लिखी सरस कहानीवाली रचना को श्राख्यायिका कहा है। यह उच्छ बासों में विभक्त होती थी और इसका कहनेवाला और कोई नहीं, स्वयं नायक होता था। इसमे बीच-बीच मे वक्त्र और अपवक्त्र छन्द आ जाते थे। इसमें कन्या- हरण, युद्ध, विरोध और अन्त में नायक की विजय का उल्लेख भी होता था। 'कथा' इससे थोड़ा भिन्न हुआ करती थी। उसमें वक्त्र और अपवक्त्र छन्द नहीं होते थे और न उसका विभाजन ही उच्छवास-संशक अध्यायों में हुआ करता था। इसकी कहानी स्वयं नायक नही कहा करता था, बल्कि किन्हीं दो व्यक्तियों की बातचीत के रूप में कह दी जाती थी। उसके लिये भाषा का कोई बन्धेज नहीं था। भामह के इस कथन को ही मानो सामने रखकर दण्डी ने 'काव्यादर्श' (शार३-२८) में कहा था कि कथा और आख्यायिका वस्तुतः एक ही श्रेणी की रचनाएँ हैं; क्योंकि कहानी नायक कहे या कोई और कहे, अध्याय का विभाजन हो या न हो, अध्यायों का नाम उच्छवास रखा जाय या लम्भ रखा जाय, बीच में वक्त्र या अपवस्त्र छन्द आते हों या न आते हों, इससे कहानी में क्या अन्तर आ जाता है ? इसलिए इन ऊपरी भेदों के कारण 'कथा' और प्रास्यायिका' में अन्तर नहीं करना चाहिए । दण्डी का यह रुथन संकेतपूर्ण है। हम आगे इस सकेत को समझने का प्रयास करेंगे। १. रासो में कई जगह 'कथा' कहने की बात आई है। परन्तु प्रारम्भिक पों मे एक प्राकृत की गाथा श्राई है, जिसका उल्लेख इसी व्याख्यान में आगे किया जा रहा है। उसमें "कित्त' कहो भादि 'अन्ताई पाठ है। गाथा प्राकृत में लिखी गई होगी। उसमे 'बुत्त या उक्त पहले ही आ चुका है, इसलिये फिर से 'कहो की कोई आवश्यकता नही जान पड़ती। जान पड़ता है, यहाँ मूलरूप में कहीं नहीं, 'कहा था। इस प्रकार भूलरूप इस प्रकार रहा होगा-'दिल्ली ईस गुणाणं कित्तिकहा आदि अन्ताणं ।' २. अपादः पादसन्तानो गधमाख्यायिका कथा । इति तस्य प्रभेदी द्वौ तयोराख्यायिका कित ॥ नायकेनेच चाच्यान्या नायकेनेतरेण वा। स्वगुग्णाविष्क्रिया दोषो नात्र भूतार्थशंसिनः ।। अपि स्वनियमो दृष्टस्सत्राध्यन्यैरवीरणात् । अन्यो वक्ता स्वयं वेति कीदृग्वा भेदलक्षणम् ।। वक्त्रं चापरचक्न च सोच्छवासं चापि भेदकम् । चिलमाख्यायिकायाश्चेत् प्रसङ्गेन कथास्वपि । आर्यादिवप्रदेशः कि न वक्त्रापरवक्त्रयोः । भेदश्च दृष्टो लम्मादिरच्छ वासोवास्तु किं ततः ।। तत्कथाख्यायिकेत्येव जाति: संज्ञायांकिता । अन्नवाविर्भविष्यन्ति शेषाश्चाख्यानबाचयः ।।