पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/७४

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तृतीय व्याख्यान, लीलावती में वह प्रश्नोत्तर के रूप मे है। कादम्बरी मे भी कथा शुक के द्वारा कहलवाई गई है और पूर्वकया मे बताया गया है कि किस प्रकार यह कथा ऋषिकुमारों के प्रश्नों के उत्तर में जावालि ऋषि ने सुनाई थी और किस प्रकार शुक ने उनसे कथा सुनी, और इस प्रकार मूलतः प्रश्नोत्तर के रूप मे ही यह कथा कही गई है। लीलावती में पूर्वकथा का घटाटोप उतना नहीं है। वहाँ सिर्फ कवि की पत्नी ने सायकालीन मधुर शोमा को देखकर अपने प्रियतम को सम्बोधन करके कहा कि कोई सरस कथा कहो। इसके लिये बहुत अधिक भूमिका की जरूरत नहीं समझी गई। थोड़ी तो समझी ही गई है, क्योकि इतना भी न रहे तो कथा भी ग्राम्य कवि की कही हुई कहानी बन जाय । सो, कवि की पत्नी ने देखा कि अन्तःपुर की गृहदीर्घिका या भवनवापी में चन्द्रमा की ज्योत्स्ना से झलकती हुई कान्तिवाले गन्धोत्कट कुमुदों मे रसलोम से कम्पमान भ्रमर छककर मकरन्द पान कर रहे हैं- जोरहाऊरिय-कोस-कन्तिघवले सव्यंगगंधुक्कडे गिविग्ध घर दीहियाए सुरसंवेवंतो मासलं । आसाएइ सुमंजु गुञ्जियरवो तिगिच्छि पाणासवं उम्मिल्लंत दलाचली परियओ चंदुजए छप्पो ॥२४॥ और फिर इसी प्रकार की मनोहर रात्रि भी है। यह समय कथा के लिए निश्चय ही बहुत उपयुक्त है। इसके बाद कथा शुरू हो जाती है। बीच-बीच में कवि बिना प्रसग के ही 'प्रियतम' 'कुवलयदलाक्षि' सम्बोधनों का उसी प्रकार प्रयोग कर बैठता है जिस प्रकार गोस्वामी तुलसीदासजी अपने मानस में 'उमा', 'खगेश' 'उरगारि आदि सम्बोधनों का प्रयोग कर देते हैं । वस्तुतः तुलसीदासनी ने अब एक बार अपनी रचना को 'कथा' कह दिया तो उन्होंने उन सब रूदियों का विधिवत् पालन किया जो प्राकृत और अपभ्रंश-कथानों के लिये श्रावश्यक समझी जाती थीं । खल-निन्दा मे भी नहीं चूके । कथान्तररूप मे पूर्व-कथा की योजना उन्होंने भी की है और श्रोता-वक्ताओं के कई जोडे उपस्थित किये हैं। मैं ठीक नहीं कह सकता कि इस प्रकार कई जोडे श्रोता-वक्ता की योजना किसी अपभ्रश-काव्य में थी या नहीं। उपलब्ध अपभ्रंश-काव्यों में मुझे इस प्रकार का जटिल प्रश्नविधान नहीं मिला। जटिलता का एक कारण तो यही हो सकता है कि तुलसीदासजी की कथा सिर्फ कथा नहीं, 'पुराण' भी है । मेरे मित्र डॉ० श्रीकृष्णलाल ने दिखाया है कि तुलसीदासजी के रामचरितमानस को 'पुराण' कहना अधिक सगत है। पुरानों मे जटिल प्रश्नोत्तरविधान की योजना मिल जाती है, लेकिन पृथ्वीराजरासो मे सभवतः इस प्रकार की जटिलता का कुछ आभास पाया जा सकता है। हिन्दी के प्रारम्भकाल मे पाई जानेवाली कथाओं में इस प्रकार की श्रोता-वक्ता की योजनावाला विधान मिल जाता है। कीर्तिलता की कहानी भृग और भृगी की बातचीत की रूप मे है। यद्यपि पद्मावत की पूरी कहानी किसी शुक्र के मुंह से नहीं कहलाई गई है तथापि शुक उस कहानी का महत्त्वपूर्ण पात्र है और कथा मे गति देने में वह विशेषरूप से सहायक है। जहाँ तक कथानक को श्रोता-वक्ता के रूप मे कहने का सम्बन्ध है, सूफी कवियर्या में इस प्रकार की